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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘झोंपड़ा तो रहेगा।’

‘खाली घर में भूत रहते हैं।’

‘अपने प्यारे का भूत भी प्यारा होता है।’

दूसरे दिन मुन्नी उस झोंपड़े में रहने लगी। लोगों को देखकर ताज्जुब होता था। मुन्नी उस झोंपड़े में नहीं रह सकती। वह उस भोले मुसाफ़िर को ज़रूरद़गा देगी, यह आम ख़याल था, लेकिन मुन्नी फूली न समाती थी। वह न कभी इतनी सुन्दर दिखायी पड़ी थी, न इतनी खुश। उसे एक ऐसा आदमी मिल गया था, जिसके पहलू में दिल था।

लेकिन मुसाफ़िर को दूसरे दिन यह चिन्ता हुई कि कहीं यहाँ भी वही अभागा दिन न देखना पड़े। रूप में वफ़ा कहाँ? उसे याद आया, पहले भी इसी तरह की बातें हुई थीं, ऐसी ही क़समें खायी गयी थीं, एक दूसरे से वादे किये गये थे। मगर उन कच्चे धागों को टूटते कितनी देर लगी? वह धागे क्या फिर न टूट जायँगे? उसके क्षणिक आनन्द का समय बहुत जल्द बीत गया और फिर वही निराशा उसके दिल पर छा गयी। इस मरहम से भी उसके जिगर का जख्म न भरा। तीसरे रोज़ वह सारे दिन उदास और चिन्तित बैठा रहा और चौथे रोज़ लापता हो गया। उसकी यादगार सिर्फ़ उसकी फूस की झोंपड़ी रह गयी।

मुन्नी दिन-भर उसकी राह देखती रही। उसे उम्मीद थी कि वह ज़रूर आयेगा। लेकिन महीनों गुज़र गये और मुसाफ़िर न लौटा। कोई खत भी न आया। लेकिन मुन्नी को उम्मीद थी, वह ज़रूर आयेंगे।

साल बीत गया। पेड़ों में नयी-नयी कोपलें निकलीं, फूल खिले, फल लगे, काली घटाएं आयीं, बिजली चमकी, यहाँ तक कि जाड़ा भी बीत गया और मुसाफ़िर न लौटा। मगर मुन्नी को अब भी उसके आने की उम्मीद थी; वह जरा भी चिन्तित न थी, भयभीत न थी वह दिन-भर मजदूरी करती और शाम को झोंपड़े में पड़ रहती। लेकिन वह झोंपड़ा अब एक सुरक्षित किला था, जहाँ सिरफिरों के निगाह के पाँव भी लंगड़े हो जाते थे।

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