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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

बड़े बाबू

तीन सौ पैंसठ दिन, कई घण्टे और कई मिनट की लगातार और अनथक दौड़-धूप के बाद मैं आख़िर अपनी मंज़िल पर धड़ से पहुँच गया। बड़े बाबू के दर्शन हो गये। मिट्टी के गोले ने आग के गोले का चक्कर पूरा कर लिया। अब तो आप भी मेरी भूगोल की लियाकत के कायल हो गये। इसे रुपक न समझिएगा। बड़े बाबू में दोपहर के सूरज की गर्मी और रोशनी थी और मैं क्या और मेरी बिसात क्या, एक मुठ्ठी खाक। बड़े बाबू मुझे देखकर मुस्कराये। हाय, यह बड़े लोगों की मुस्कराहट, मेरा अधमरा-सा शरीर कांपने लगा। जी में आया बड़े बाबू के कदमों पर बिछ जाऊँ। मैं काफिर नहीं, गालिब का मुरीद नहीं, जन्नत के होने पर मुझे पूरा यक़ीन है, उतरा ही पूरा जितना अपने अंधेरे घर पर। लेकिन फ़रिश्ते मुझे जन्नत ले जाने के लिए आए तो भी यक़ीनन मुझे वह जबरदस्त खुशी न होती जो इस चमकती हुई मुस्कराहट से हुई। आँखों में सरसों फूल गयी। सारा दिल और दिमाग एक बगीचा बन गया। कल्पना ने मिस्र के ऊँचे-ऊँचे महल बनाने शुरू कर दिये। सामने कुर्सियों, पर्दों और खस की टट्टियों से सजा-सजाया कमरा था। दरवाज़े पर उम्मीदवारों की भीड़ लगी हुई थी और ईंजानिब एक कुर्सी पर शान से बैठे हुए सबको उसका हिस्सा देने वाले खुदा के दुनियावी फ़र्ज अदा कर रहे थे। नज़र-मियाज़ का तूफ़ान बरपा था और मैं किसी तरफ़ आँख उठाकर न देखता था कि जैसे मुझे किसी से कुछ लेना-देना नहीं।

अचानक एक शेर जैसी गरज ने मेरे बनते हुए महल में एक भूचाल-सा ला दिया– क्या काम है? हाय रे, ये भोलापन! इस पर सारी दुनिया के हसीनों का भोलापन और बेपरवाही निसार है। इस ड्योढ़ी पर माथा रगड़ते-रगड़ते तीने सौ पैंसठ दिन, कई घण्टे और कई मिनट गुज़र गए। चौखट का पत्थर घिसकर जमीन से मिल गया। ईदू बिसाती की दुकान के आधे खिलौने और गोवर्द्धन हलवाई की आधी दुकान इसी ड्यौढ़ी की भेंट चढ़ गयी और मुझसे आज सवाल होता है, क्या काम है!

मगर नहीं, यह मेरी ज़्यादती हैं सरासर जुल्म। जो दिमाग़ बड़े-बड़े मुल्की और माली तमद्दुनी मसलों में दिन-रात लगा रहता है, जो दिमाग़ डाकिटों, सरकुलरों, परवानों, हुक्मनामों, नक्शों वग़ैरह के बोझ से दबा जा रहा हो, उसके नजदीक मुझ जैसे खाक के पुतले की हस्ती ही क्या। मच्छर अपने को चाहे हाथी समझ ले पर बैल के सींग को उसकी क्या ख़बर। मैंने दबी ज़बान में कहा– हुजूर की क़दमबोसी के लिए हाज़िर हुआ।

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