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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464
आईएसबीएन :978-1-61301-159

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


बड़े बाबू फिर गरजे– क्या काम है?

अबकी बार मेरे रोएँ खड़े हो गये। खुदा के फ़जल से लहीम-शहीम आदमी हूँ, जिन दिनों कालेज में था, मेरे डील-डौल और मेरी बहादुरी और दिलेरी की धूम थी। हाकी टीम का कप्तान, फुटवाल टीम का नायब कप्तान और क्रिकेट का जनरल था। कितने ही गोरों के जिस्म पर अब भी मेरी बहादुरी के दाग़ बाकी होंगे। मुमकिन है, दो-चार अब भी बैसाखियां लिये चलते या रेंगते हों। बम्बई क्रानिकल और टाइम्स में मेरे गेंदों की धूम थी। मगर इस वक़्त बाबू साहब की गरज सुनकर मेरा शरीर काँपने लगा। काँपते हुए बोला– हुजूर की क़दमबोसी के लिए हाज़िर हुआ।

बड़े बाबू ने अपना स्लीपरदार पैर मेरी तरफ़ बढ़ाकर कहा– शौक से लीजिए, यह क़दम हाज़िर है, जितने बोसे चाहे लीजिए, बेहिसाब मामले हैं, मुझसे क़सम ले लीजिए जो मैं गिनूँ, जब तक आपका मुँह न थक जाय, लिए जाइए! मेरे लिए इससे बढ़कर खुशनसीबी का क्या मौका होगा? औरों को जो बात बड़े जप-तप, बड़े संयम-व्रत से मिलती है, वह मुझे बैठे-बिठाये बग़ैर हड़-फिटकरी लगाये हासिल हो गयी। वल्लाह, हूँ मैं भी खुशनसीब। आप अपने दोस्त-असबाब, आत्मीय-स्वजन जो हों, उन सबको लायें तो और भी अच्छा, मेरे यहाँ सबको छूट है!

हंसी के पर्दे में यह जो जुल्म बड़े बाबू कर रहे थे उस पर शायद अपने दिल में उनको नाज़ हो। इस मनहूस तक़दीर का बुरा हो, जो इस दरवाज़े का भिखारी बनाए हुए है। जी में तो आया कि हज़रत के बढ़े हुए पैर को खींच लूं और आपको ज़िन्दगी– भर के लिए सबक दे दूँ कि बदनसीबों से दिल्लगी करने का यह मज़ा हैं मगर बदनसीबी अगर दिल पर जब्र न कराये, जिल्लत का अहसास न पैदा करे तो वह बदनसीबी क्यों कहलाये। मैं भी एक ज़माने में इसी तरह लोगों को तकलीफ़ पहुँचाकर हंसता था। उस वक़्त इन बड़े बाबुओं की मेरी निगाह में कोई हस्ती न थी। कितने ही बड़े बाबुओं को रुलाकर छोड़ दिया। कोई ऐसा प्रोफेसर न था, जिसका चेहरा मेरी सूरत देखते ही पीला न पड़ जाता हो। हज़ार-हज़ार रुपया पाने वाले प्रोफेसरों की मुझसे कोर दबकी थी। ऐसे क्लर्कों को मैं समझता ही क्या था। लेकिन अब वह ज़माना कहाँ। दिल में पछताया कि नाहक कदमबोसी का लफ़्ज ज़बान पर लाया। मगर अपनी बात कहना ज़रूरी था। मैं पक्का इरादा करके आया था कि उस ड्यौढ़ी से आज कुछ लेकर ही उठूँगा। मेरे धीरज और बड़े बाबू के इस तरह जान-बूझकर अनजान बनने में रस्साकशी थी। दबी ज़बान से बोला– हुजूर, ग्रेजुएट हूँ।

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