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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


इस नये योग से संभुआ की बहू कलह में बलवत्तर हो गयी। सकही झगड़े में संभुआ की बहू से भी आगे थी। वह अपने आश्रयदाता की सहायता करना अपना धर्म समझती थी। नीम पर जमा हुआ पीपल का पादप यदि उससे रस ग्रहण करता है, तो शस्त्रधारी बारी के समक्ष पहले अपनी ही गर्दन झुका देता है। कालिका की नानी को नयी आपदा का सामना करना था। उसकी जिह्वा की गति में, मुँह की भावभंगी में, हाथों के फैलाव में दूनी गति बढ़ गयी। मुँह से फिचकुर बहुत शीघ्र निकलने लगता था। नोचे हुए केशों का ढेर भी अधिक बढ़ जाता था; झगड़ा न मिटा। सकही का पति रघुबर वैसा ही निष्क्रिय था, जैसे कि घर के और पुरुष।

सकही का दूसरा नाम झुरही भी था। खड़े हुए बाँसों में फटे टाट के भीतर से झुरही का रंग-ढंग मैंने बहुधा अपने कमरे में देखा था। वह प्रात:काल ही उठ जाती थी और बिना अन्य किसी कार्य में प्रवृत्त हुए अपनी टीन की डिबिया में तर्जनी डुबोकर कुंकुम का एक बिन्दु दोनों भौंहों के बीच में अंकित कर लेती थी। इस कार्य में उसी डिब्बी के ढकने में चिपके हुए एक तिकोनिये शीशे को उसे सहयोग लेना पड़ता था। झुरही गोरी थी; ऐसी जैसी भद्र घर की गोरी महिलाएँ होती हैं। चरस पीने का उसे बड़ा व्यसन था। इसी के कारण वह तबाह थी। शरीर सूखकर काँटा हो रहा था। अभी अवस्था न होने पर भी खाल पर झुर्रियाँ पड़ी थीं। स्नान करने से बहुत घबराती थी। शरीर पर काफी मैल जमा हुआ था। मोटी फटी धोती कभी किसी धोबी का मुँह न देखती थी। झुरही स्वयं कपड़े धोना जानती ही न थी।

सकही कई आक्रमणों का सामना कर चुकी थी। दरिद्रता का, ज्वर और आयु का, राजयक्ष्मा तो शरीर को क्षीण कर ही रहा था, चरस की चसक ने रक्त और मांस सबको सुखा दिया था। लूटे हुए सौन्दर्य के भग्नावशेष अब भी खड़े थे। झुरही जीवन के किसी सुख से हिलती न थी। उसका पारा सुख-संसार सिमटकर चरस की फूँक में केन्द्रित हो गया था। लम्बी लौ निकालकर खाँसी के झटकों से तमतमायी हुई लोहित आकृति को ताम्रवर्ण से मिलाना ही उसकी प्रतिक्षणा की समस्या थी। चरस उसके अनुराग का सोहाग थी।

चरस के लिए झुरही सब कुछ कर सकती थी। इसके लिए वह परिचित-अपरिचित सब के सामने हाथ फैला देती थी, उसी के लिए उसने बूढ़े रघुबर को अपना पति बना रखा था। उसे भोजन की चिंता न थी, उसे वस्त्रों की परवाह न थी, वह चाहती थी केवल चरस। छ: आने की पुड़िया देखकर तो वह थिरक उठती। धुएँ के खींचने में आंतरिक आनन्द मिलता। रघुबर टाट सीकर दिनभर में जो कुछ लाता, उसका बड़ा भारी भाग चरस के लिए पृथक् कर लिया जाता था। रोटी कभी-कभी न बनती, परन्तु चरस का आयोजन अनिवार्य था। रघुबर भी चरस का भक्त था, परन्तु इतना नहीं।

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