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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


दरिद्रनारायण के सहयोग से सकही और रघुबर के निजी आलसी स्वभाव ने उसके घर को घूर बना रखा था। मिट्टी के पात्रों में गहरी काई लगी थी। गुदड़ी की दुर्गन्ध बड़ी दूर से नाकों तक पहुँच जाती थी। लटके हुए चीथड़े कभी-कभी छितरकर कालिका की नानी की रसोई में पहुँचकर झगड़ा खड़ा कर दिया करते थे। नमी से रक्षा के लिए एक लम्बा टीन का टुकड़ा पड़ा था। दो-दो ईंटें तकिये के स्थान पर रखी थीं। छाते के कपड़ों की चादर, जिसका कोई आकार न था, सकही के शरीर की रात्रि के शीत से रक्षा करती थी। बूढ़ा रघुबर भी उसी में कभी-कभी सिसियता हुआ घुस जाता था। घिसी हुई कथरी के टुकड़े की उभरी हुई सीवन झुरही की नीली नसों की भाँति दिखायी देती थी। झुलसनेवाली वायु से झुरही का बड़ा परिचय था। सूर्य की प्रखर किरणों से उसकी मैत्री थी। शिशिर की काँपनेवाली हवा से उसका अनुराग था।

झुरही पति से प्रतिदिन लड़ा करती थी। अधिकतर झगड़ा खर्चे के लिए होता। झुरही रघुबर के पास कई वर्षों से थी। वह अपनी सारी सम्पत्ति इसे प्रसन्न करने के लिए चरस की चिलम पर रख चुका था। मैंने सुना था कि वह बहुत अच्छा कपड़ा पहनता था और बहुत स्वच्छ रहता था। झुरही भी बहुतों के देखने की वस्तु थी; परन्तु इस दम्पत्ति के मेल का महल नग्न स्वार्थ पर ही बना था। यदि एक दिन भी चरस में कोई ढील हुई तो झुरही ने गाली बकना आरम्भ कर दिया और रघुबर ने मारना। रघुबर को झुरही की उतनी ही आवश्यकता थी, जितनी पेट भरने के लिए दाल-भात की होती है।

अब दरिद्रता की अध्यक्षता में जो कलह इस दंपत्ति में होती थी, उसमें मार झुरही की ओर से और गालियाँ रघुबर की ओर से आरम्भ होती थीं। कई बार रघुबर ने उसे घर से निकल जाने की धमकी दी और वह इस प्रस्ताव से सहमत भी हो गयी, परन्तु एक आध दिन के बाद वह फिर रघुबर के ही यहाँ आ जाती। एक दिन झुरही के फूटे शीशेवाले सोहाग की डिब्बी न जाने कहाँ खो गयी। झुरही व्याकुल थी। उसका भाल सूना था। वह ढूँढ़ते-ढूँढ़ते व्यथित हो गयी। श्यामू की बहू ने समझाया, परन्तु उसका रोना बन्द न हुआ। रघुबर ने पुचकारा, परन्तु उसका क्रोध उबल उठा। दो दिनों तक वह बिना खाये-पीये कथरी में मुँह छिपाए रोती रही। अंत में जब रघुबर ने कहीं से डिब्बी को निकालकर झुरही के हाथ में दे दिया, तो उसके चेहरे में कुछ मुस्कुराहट दौड़ी। उसने फूटे शीशे को सामने करके अपने भाल पर कुंकुम का एक बिन्दु रख लिया। झुरही कुछ और प्रसन्न हुई, परन्तु शीघ्र ही तमककर खड़ी हो गयी और कर्कश स्वर में कहने लगी–‘तूने ही मेरी डिब्बी चुराकर रख ली थी।’

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