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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


‘इस आपत्ति में भी मुनिया ने फूटे शीशे वाली सिंदूर की डिब्बी को दुःख में भगवत नाम की भाँति न छोड़ा। चतुष्पदों के खुरों से मसली हुई अनायास पतिता एक कली की भाँति मार्ग के एक कोने पर निःसंज्ञ पड़ी हुई मुनिया पुलिसवालों को मिली। वह तुरंत अस्पताल भेजी गयी। उसकी करुणा कहानी करुणा की निजी कहानी थी। आततायियों ने उसे सभी प्रकार से नष्ट किया था। और अर्धमृत अवस्था में मार्ग में छोड़कर चले गये थे। अस्पताल से अच्छी होकर मुनिया बाहर तो निकली, परंतु उसके लिए सब द्वार अवरुद्ध थे। उधर देवर ने डाकुओं के घर रही हुई भावज को घर आने देना ठीक न समझा।

वे सब इस प्रयत्न में थे कि किसी प्रकार मुनिया सूतनपुरवा ही में रहे। दोनों ओर के द्वार जब भटके से आवृत हो गए तो मुनिया ने उसी द्वार पर धरना देना उचित समझा, जहाँ पर इतने दिनों तक पली थी। उसे विश्वास था कि उसके माता, पिता, भाई, ताऊ इत्यादि उसके लिए सजीव हृदय रखते हैं। परंतु उसे धोखा हुआ! समाज के भय ने वात्सल्य प्रेम को अछूत की भाँति बहिष्कृत कर दिया था।

‘तीन दिन तक निरंतर रोती हुई मुनिया अधीन के द्वार पर पड़ी रही। फूटे शीशे को सामने लेकर वह कुंकुम का बिंदु प्रति दिन अंकित कर लेती थी। दूर से भोजन दिया जाता था। एक दिन वह ग्लानि से भरकर चुपके से निकल गयी। अधीन ने सपरिवार आश्वासन की साँस ली। कई दिनों के बाद सुना गया कि मुनिया रघुबर के घर बैठ गयी है। उसकी स्त्री अभी-अभी मरी थी। उसने इसे अच्छा भोजन और नये वस्त्र दिये। उसने इसकी भूख को शांत किया। रघुबर के बहुत से दुर्गुणों में चरस को मुनिया ने अपनाया और मुनिया के अवगुणों में गंदगी को रघुबर ने अंगीकार किया। इस दम्पति के संबंध बहुत बड़े सुदृढ़ स्वार्थ पर अवलम्बित था। मुनिया का रघुबर में स्वार्थ पहिले तो भोजन और वस्त्रों का था फिर चरस के पैसों का रह गया। रघुबर का स्वार्थ पहले मुनिया से उतना ही था, जितना की एक बलीवर्द का स्वार्थ उस भग्न दीवार से होता है कि जिसके संघर्ष से वह अपनी खुजली मिटाता है। आगे चलकर वह स्वार्थ घिस कर केवल इस अभिमान से हिल गया कि अधीन की लड़की को उसने रखा है। अंत तक मुनिया उसके सिर का बोझ हो गयी और वह इससे छुटकारा पाने का ही अधिक इच्छुक था।

मुनिया चरस पीते-पीते पीली पड़ गयी। सूखकर काँटा हो गयी। उसे दम आने लगी। इसी से उसका नाम सकही और झुरही पड़ गया। वह इस नाम से तनिक भी क्रुद्ध न होती थी। रघुबर के घर में टाट की कोठरी के भीतर वह कभी कुंकुम का बिंदु लगाना न भूली। वह नहाती न थी पर फूटे शीशे को हाथ में लेकर सेंदुर अवश्य लगा लेती थी। एक दिन लड़कर वह कानपुर से भाग आयी। उस बार जब मैं लखनऊ आया था तो उसने मुझे पालागन किया था। अबकी बार नितांत विक्षिप्त हो गयी है। मुझे पहचानी नहीं। अब भी वह सेंदुर का टीका फूटे शीशे के सहारे लगाना नहीं भूली है।’

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