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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


ललिता को बड़ी जिज्ञासा बड़ी चिन्ता से देखता हूँ। शायद उन शब्दों का ललिता के व्यक्तित्व से कोई सामंजस्य है। फिर रह-रहकर यह बात मन में आती है–संभव है, भाई साहब ने समझा हो, मैं पीछे ललिता को ठीक प्यार, सँभाल और अपनेपन के साथ नहीं रख पाऊँगा, और इसलिये ऐसा कहा हो? जब यह बात मन में उठती है तो भाई साहब पर बहुत क्रोध आता है। उन्होंने बे-भरोसे का आदमी समझा–जैसे उनका सगा, उन्हीं का पाला पोसा और पढ़ाया-लिखाया नहीं हूँ! परन्तु ऐसी बात सोचकर मैं ललिता के ब्याह के बारे में व्यग्र और उद्विग्न नहीं हो उठता। सोचता हूँ, भाई साहब की मंशा पूरी करने का काम अब मुझ पर है–ललिता को खूब पढ़ाऊँगा और खूब धूम-धाम से उसका विवाह करूँगा। दीया लेकर ऐसा लड़का ढूँढ़ूगा जो दुनिया में एक हो। हमारी ललिता ऐसी जगह जायगी कि भैया स्वर्ग में खुशी से फूले उठेंगे पर जल्दी नहीं।

इस तरह ललिता का पढ़ना जारी रहा है। बी. ए. में पहुँचेगी, तब कहीं ब्याह की बात सोचूँगा।

ललिता भी हमारे घर में एक अजीब लड़की है। कुछ समझ में नहीं आता। जाने कैसे मैट्रिक फर्स्ट क्लास में पास कर गयी। जब पढ़ने में इतनी होशियार है तब व्यवहार में क्यों इतनी अल्हड़ है। उसे किसी बात कि समझ ही नहीं है। लोग कुछ कहें, कुछ समझें, जो मन में समाया उसे वह कर ही गुजरती है। नौकर हो सामने, और चाहे अतिथि बैठा हो, उसे जोर की हँसी आती है; तब वह कभी उसे न रोक सकेगी। गुस्सा उठेगा तब उसे भी बेरोक निकाल बाहर करेगी। सबके सामने बेहिचक मुझे, चाचा को चूमकर प्यार करने लगती है। और मेरी ही तनिक-सी बात पर ऐसा तनक उठती है कि बस! हँसती तो वह खूब है, गुस्सा तो उसका आठवाँ हिस्सा भी नहीं करती होगी, हाँ जब करती है तब करती ही है, फिर चाहे कोई हो, कुछ हो!

मैं चाहता हूँ, वह कुल-शील का, सभ्यता-शिष्टता का, अदब कायदे का, छोटे-बड़े का व्यवहार में सदा ध्यान रखे। पर उससे इन सब बातों पर निबन्ध चाहे मुझसे भी अच्छा लिखवा लो, इन सबका वह ध्यान नहीं रख सकती। नौकरों से अपनापन जोड़ेगी, हमसे जैसी बची-बची रहेगी। सहपाठियों और अँगरेजी जानने वालों से हिन्दी के सिवा और कुछ न बोल सकेगी, पर नौकरों और देहातियों से अँगरेजी में ही बोलेगी। नौकरों को तो कभी-कभी अँगरेजी में पाँच-पाँच मिनट के लेक्चर सुना देती है, मानो दुनिया में यही उसकी बात को हृदयंगम करने वाले हों! समकक्षियों और बड़ों में घोर-गम्भीर और गुमसुम रहती है, जैसे सिर में विचार ही विचार हैं, जबान नहीं है। छोटों में ऐसी खिली-खिली और चहकती फिरती है, जैसे उसका सिर खाली है, कतरने को बस जबान ही है।

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