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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


‘अब नहीं टालूँगा। बस!’

‘नहीं।’

‘अभी मिस्त्री काम से लौटे होंगे? अभी कौन मिलेगा?’

‘मिस्त्री दस मिल जायेंगे। मिल जाय तो लगा लूँ?’

‘हाँ-हाँ, लगा लो।’ यह कहकर उसे टाला, कपड़े उतारे, हाथ-मुँह धोया और अखबार लेकर ईज़ी चेयर पर पड़ गया।

कुछ देर बाद खुट-खुट की आवाज़ कानों में पड़ी। ‘नेशन’ के अग्रलेख का तर्क मुझे ठीक नहीं लग रहा था। उसे पढ़ते-पढ़ते ऊँघ-सी आने लगी थी, तभी खुट-खुट का शब्द सुनकर अंदर पहुँचा।

‘क्या है, ललिता?’ कहता हुआ मैं उसके कमरे में चला गया, देखा एक बढ़ई काम में लगा है।

‘आपने कहा था न कि मिस्त्री को काम में लगा लेना।’

कहा था तो कहा होगा–पर मुझे उसकी याद नहीं थी। बोला–‘तो तुम लपककर उसे बुला भी लायीं। मानो तैयार ही बैठा था।’

‘नहीं। जाते देखा बुला लिया।’

‘दिन भर काम करके घर लौट रहा होगा-सो तुमने बुला लिया। बेचारे मजदूर पर कोई दया नहीं करता। तुम्हारा क्या होगा?’

‘कोई बेगार थोड़े ही है। उजरत भी तो दी जायगी। यह तो इसमें खुश ही होगा।’ मुड़कर उसने मिस्त्री से पूछा क्यों बाबा?’

मिस्त्री बूढ़ा सिक्ख था। बड़ी लम्बी सफेद दाढ़ी थी। सफेद ही साफा था आँखों में स्नेह और दीनता का रस था। ललिता का प्रश्न सुनकर उसने ऐसे देखा, मानो उसकी आँखों में की दीनता और स्नेह एक-दम छलक आये हैं। ललिता सिहर-सी लहरा दी। उसने कहा–

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