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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


‘नहीं, बेटी! मुझे सबेरे से कोई काम नहीं मिला। मेरा घर यहाँ नहीं है। बहुत दूर है। पेशावर तुमने सुना होगा, उसके पास अटक है, अटक के पास मेरा घर है। दरिया सिंध इसको छूकर बहता है। मैं यहाँ आज ही आया हूँ। काम न मिलता तो जाने मेरा क्या होता?’

दरिया सिंध के किनारे वाले हिंदुस्तान के छोर पर के गाँव से यह बुडढ़ा सिख, नर्मदा के किनारे के हिंदुस्तान के बीचों-बीच बसे हुए इस होशंगाबाद में, इस प्रकार बे-पैसे किस आफत का मारा आ पहुँचा, यह सब जानना मुझे आवश्यक न जान पड़ा। अब ललिता ने कुरेद-कुरेदकर उसकी कहानी पूछी। मैंने भी सुनी। .

जब वह बुड्ढा नहीं था। जवान था। तब की बात है। दरिया में बाढ़ आ गयी। झोपड़ा बह गया, खेत डूब गये। वह, उसकी घरवाली और उसका एक छोटा लड़का इन तीनों ने एक दूर गाँव में जाकर आश्रय लिया। पर खायें कहाँ से? जो थोड़ा-बहुत नकद बाढ़ के मुँह से बचाकर ले आ सके थे, उससे ही बैठ-कर कब तक खायेंगे? ऐसी ही चिन्ता के समय उसे एक तरकीब सुझायी गयी मदरास चला जाय तो वहाँ बहुत आदमियों की जरूरत है, खूब तनख्वाह मिलती है, और सहूलियतें हैं। खूब आराम है। थोड़े ही दिनों में मालामाल होकर लौट सकेगा। मदरास पहुँचा-वहाँ से फ़िजी। घर से निकलने पर यह सब उसके बस का नहीं रह गया था कि वह फ़िजी न जाय। तब फ़िजी न जाता तो शायद जेल जाना पड़ जाता, ताज्जुब नहीं जान से हाथ धो बैठने का मौका आ जाता। फ़िजी में काम किया। पीछे से वहाँ कमाने का मौका हो सकता था। पर बच्चे की घर वाली की याद ने वहाँ रहने न दिया। जहाज के टिकट भर का पैसा पास होते ही वह चल दिया। मदरास आया। आरी और बसूलों की सहायता से उसने मदरास में एक महीने तक अपना पेट भरा और उनसे ही एक महीने में बम्बई जाने तक का किराया जुटाया। बम्बई में जैसे-तैसे पेट तो भर सका, लाख कम खाने हजार ज्यादा करने पर भी वह ऊपर से कुछ न जुटा सका। आखिर लाचार बे-टिकट चल दिया। होशंगाबाद में टिकट वालों ने उतार दिया। वहाँ से वह अपने औजार सँभाले चला आ रहा था। बहुत समझो, उसकी वह पूँजी रेलवालों ने छोड़ दी।

कहानी सुनकर बूढ़े पर दया करने को मेरा जी चाहा। पूछा– ‘ललिता, इसे कितने में तय किया था।’

‘ठहराया तो कुछ नहीं।’

‘नहीं ठहराया?’

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