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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


एक छोटे से गाँव के किनारे हम आ गये। २५-३० घर होंगे। नीची छतें हैं, उनसे भी नीचे द्वार। शाम हो गयी है। हरित भीमकाय उत्तुंग पर्वतमालाओं की गोद में इस प्रशांत-सिंध संध्या में यह खेड़ा, इस अजेह प्रवाह से बहते हुए सिंध के किनारे, विश्व के इस एकांत शांत-अज्ञात और गुप-चुप छिपे कोने में, मानो दुनिया की व्यवस्था और कोलाहल के प्रतिवाद-स्वरूप विश्राम कर रहा है। प्रकृति स्थिर, निमग्न, निश्चेष्ट, मानो किसी सजीव राग में तन्मय हो रही है। यह खेड़ा भी मानो उसी राग (harmony) से मौन समारोह में योग दे रहा है।

इन मुट्ठी-भर मकानों से अलग टेकड़ी-सी ऊँची जगह पर एक नया-सा झोपड़ा आया और बुड्ढे ने हमें खबरदार कर दिया। बुड्ढे ने उँगली ओंठो पर रख संकेत किया, हमको यही, चुप ठहर जाना चाहिए। हम तीनों खड़े हो गये, मानो साँस भी रोक लेना चाहते हैं, ऐसे निस्तब्ध भाव से। नयी आवाज़ आयी।

‘अभी नहीं। सबक़ खतम कर दो, तब चलेंगे।’

अहो! ललिता की आवाज़ थी। डिक का तो कलेजा ही उछलकर मुँह तक आ गया। पर हम सब ज्यों-के-त्यों खड़े रहे।

एक भारी, अनपढ़, दबी, मानो आज्ञा के बोझ से दबी, आवाज़ में सुनायी पड़ा– ‘दिस इज ए चे–चेअर–’

‘हाँ, चेअर, ठीक, चेअर। गो ऑन।’

दो-तीन ऐसे लड़खड़ाते वाक्य और पढ़े गये। और उसी प्रकार उन पर दाद दी गयी। फिर उसी बारीक उकसाती हुई और चाहभरी आवाज़ में सुन पड़ा– ‘अच्छा, जाने दो! छोड़ो। चलो, दरिया चले। लेट्-स गो।’

हम ओट में छिप रहे। दोनों निकले। ललिता और वह। वह कौन है? शक्ल ठीक नहीं देख पड़ी, पर देखा, –खूब डील-डौल का जवाब है। पुट्ठे भरे हैं, चाल में धमक है, पर सब में सादगी है।
ललिता उसके बायें हाथ की उँगलियाँ थामे हुए थी। उन्हीं उँगलियों से खेलती चली जा रही थी।

मैंने बुड्ढे से पूछा–‘ वह कौन है?’

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