कहानी संग्रह >> हिन्दी की आदर्श कहानियाँ हिन्दी की आदर्श कहानियाँप्रेमचन्द
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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ
दोनों ने बहुत दिन पर मिलने वाले दो मित्रों की तरह साथ बैठकर भरपेट खाया। सीली जगह में सोते हुए बालक ने शराबी का पुराना बड़ा कोट ओढ़ लिया था। जब उसे नींद आ गयी, तो शराबी भी कम्बल तानकर बड़बड़ाने लगा–‘सोचा था, आज सात दिन पर भर पेट पीकर सोऊँगा; लेकिन वह छोटा-सा रोना, पाजी, न जाने कहाँ से आ धमका।’
एक चिंतापूर्ण आलोक में आज पहले-पहल शराबी ने आँख खोलकर कोठरी में बिखरी हुई दारिद्रय की विभूति को देखा, और उस घुटनों से ठुड्डी लगाये हुए निरीह बालक को। उसने तिलमिलाकर मन-ही-मन प्रश्न किया–किसने ऐसे सुकुमार फूलों को कष्ट देने के लिए निर्दयता की सृष्टि की? आह री नियति! तब इसको लेकर मुझे घरबारी बनना पड़ेगा क्या? दुर्भाग्य! जिसे मैंने कभी सोचा भी न था। मेरी इतनी माया-ममता, जिस पर आज तक केवल बोतल का ही पूरा अधिकार था। इसका पक्ष क्यों लेने लगी? इस छोटे से पाजी ने मेरे जीवन के लिए कौन का इंद्रजाल रचने का बीड़ा उठाया है। तब क्या करूँ? कोई काम करूँ? कैसे दोनों का पेट चलेगा। नहीं, भगा दूँ इसे–आँख तो खोले।
बालक अँगड़ाई ले रहा था। वह उठ बैठा। शराबी ने कहाँ–‘ले’ उठ, कुछ खा ले। अभी रात का बचा हुआ है, और अपनी राह देख। तेरा नाम क्या है रे?’
बालक ने सहज हँसी हँसकर कहा–‘मधुआ। भला हाथ-मुंह भी न धोऊँ, खाने लगूँ। जाऊँगा कहाँ?’
‘आह! कहाँ बताऊँ इसे कि चला जाय! कह दूँ कि भाड़ में जा; किंतु वह आज तक दुख की भट्टी में जलता ही तो रहा है। तो...’वह चुपचाप घर से झल्लाकर सोचता हुआ निकला–‘ले पाजी, अब यहाँ लौटूँगा ही नहीं। तू ही इस कोठरी में रह!’
शराबी घर से निकला। गोमती-किनारे पहुँचने पर उसे स्मरण हुआ की वह कितनी ही बातें सोचता आ रहा था; पर कुछ भी सोच न सका। हाथ-मुँह धोने में लगा। उजली हुई धूप निकल आयी थी। वह चुपचाप गोमती की धारा को देख रहा था। धूप की गरमी से सुखी होकर वह चिंता भुलाने का प्रयत्न कर रहा था कि किसी ने पुकारा– ‘भले आदमी रहे कहाँ? सालों पर दिखायी पड़े। तुमको खोजते-खोजते मैं थक गया।’
शराबी ने चौंककर देखा। वह कोई जान-पहचान का तो मालूम होता था, पर कौन है, ठीक-ठीक न जान सका।
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