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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


उसी मसनद पर बादशाह वाजिदअली शाह बैठे थे। एक गंगाजमनी काम का अलबोला वहाँ रखा था, जिसकी खमीरी मुश्की तम्बाकू जलकर एक अनोखी सुंगध फैला रही थी। चारों तरफ सुंदरियों का झुरमुट उन्हें घेरे बैठा था। सभी अधनंगी उन्मत्त, निर्लज्ज हो रही थी। पास ही सुराहियाँ और प्यालियाँ रखी थीं और बारी-बारी से उन दुर्बल होठों को चूम रही थीं। आधा मद पी-पीकर वे सुंदरियाँ उन प्यालियों को बादशाह के होठों में लगा देती थीं। वह आँखें बंद करके उसे पी जाते थे। कुछ सुंदरियाँ पान लगा रही थीं, कुछ अलबोले की निगाली पकड़े हुई थीं। दो सुदंरियाँ दोनों तरफ पीकदान लिये खड़ी थीं, जिनमें बादशाह कभी पीक गिरा देते थे!

इस उल्लसित आमोद के बीचोबीच एक मुर्झाया पुष्प–कुचली हुई पान की गिल्लौरी–वह बालिका बहुमूल्य हीरेखचित वस्त्र पहिने–बादशाह के बिलकुल पास में लगभग मूर्च्छित और अस्तव्यस्त पड़ी थी। रह-रहकर शराब की प्याली उसके मुख से लग रही और वह खाली कर रही थी। एक निर्जीव दुशाले की तरह बादशाह उसे अपने बदन से सटाये मानो तमाम इंद्रियों को एक ही रस में सराबोर कर रहे थे। गंभीर आधी रात बीत रही थी। सहसा इसी आनंद-वर्षा में बिजली गिरी। कक्ष के उसी गुप्त द्वार को विदीर्ण कर क्षण-भर में वही रूपा काले आवरण से नखशिख ढके निकल आयी। दूसरे क्षण में एक और मूर्ति वैसे ही आवेष्टन में बाहर निकल आयी। क्षण-भर बाद दोनों ने अपने आवेष्टन उतार फेंके। वही अग्निशिखा ज्वलंत रूपा और उसके साथ गौरांग कर्नल!

नर्तकियों ने एकदम नाचना-गाना बंद कर दिया। बाँदियाँ शराब की प्यालियाँ लिये काठ की पुतली की तरह खड़ी की खड़ी रह गयीं। केवल फ़ब्वारा ज्यों का त्यों आनंद से उछल रहा था। बादशाह यद्यपि बिल्कुल बदहवास थे, मगर यह सब देखकर वह मानो आधे उठकर बोले–‘ओह! रूपा दिलरुबा! तुम और ऐ मेरे दोस्त कप्तान–इस वक्त, यह क्या माजरा है?’

आगे बढ़कर और अपनी चुस्त पोशाक ठीक करते हुए तलवार की मूठ पर हाथ रख कप्तान ने कहा–‘कल आलीजाह की बंदगी में हाजिर हुआ था, मगर... ’

‘ओफ! मगर –इस वक्त इस रास्ते से? ऐं माजरा क्या है? अच्छा बैठो, हाँ, जोहरा, एक प्याला मेरे दोस्त कर्नल के...’

‘माफ करें हुजूर! इस समय मैं एक काम से सरकार की खिदमत में हाजिर हुआ हूँ।’

‘काम! वह काम क्या है?’–बैठते हुए बादशाह ने कहा।

‘मैं तख़लिए में अर्ज किया चाहता हूँ।’

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