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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


पर आज समय ही तो है। वह सिंहासन पर बैठकर आज्ञा चलाये, मैं उसके सामने भेंट लेकर नत होऊँ। कुत्ते के टुकड़े की तरह जो कुछ वह फेंक दे, सो मेरा। नहीं तो पिता-पितामह की, माता-प्रमाता की, पूर्वजों की इस विशाल सम्पत्ति पर मेरा बाल भर भी अधिकार नहीं! आह! दैव-दुर्विपाक! एक छोटे-से-छोटे कारबारी के इतना भी मेरा अधिकार नहीं। पूर्व महाराज की मुझ औरस संतान का कोई ठिकाना नहीं। क्यों इसी संयोगमात्र से कि मैं छोटा हूँ और वह बड़ा। ओह! यदि आज मैं वणिकपुत्र होता, तो भी पैतृक-सम्पत्ति का आधा भाग उसकी नाक पकड़ कर रखवा लेता। किंतु धिक्कार है मेरे क्षत्रिय-कुल में जन्मने पर, कि मैं दूर्वा की तरह, प्रतिक्षण पद-दलित होकर भी जीवित रहूँ। हरा भरा रहूँ। ‘राजकुमार’ कहा जाऊँ–‘छोटा महाराज’ कहा जाऊँ। खाली घड़े के शब्द की तरह, रिक्त बादल की गरज की तरह कोरा अभिमान कि इधर से उधर टक्कर खाता फिरूँ! शिवनिर्माल्य की तरह किसी अर्थ का न रहूँ। अपने ही घर में, अपने ही माता-पिता के आँगन में अनाथ की तरह ठोकर खाता फिरूँ। बिकर के पिंड की तरह फेंका जाऊँ। आह! यह स्थिति असह्य है मेरा क्षत्रिय-रक्त तो इसे एक क्षण भी सहन नहीं कर सकता। चाहे जैसे हो इससे छुटकारा पाना होगा। या तो मैं नहीं या यह स्थिति नहीं। देखूँ किसकी जीत होती है।

एक क्षण का तो काम है। एक प्रहार से उसका अंत होता है, किंतु क्या कायरों की तरह धोखे में प्रहार। प्रताप के लिए तो यह काम होने का नहीं, यह तो चोरों का काम है! दस्युओं का काम है! हत्यारों की वृत्ति है!

कुमार प्रतापवर्धन का चेहरा तमतमाया हुआ था। ओठ फड़क रहे थे। नस-नस में तेजी से खून दौड़ रहा था। मारे क्रोध के उसके पैर ठिकाने नहीं पड़ते थे। संध्या का शीतल समीर उसके उष्ण शरीर से टकराकर भस्म-सा हुआ जाता था। कुमार को बोध होता था कि सारा प्रासाद भूकंप से ग्रस्त है। अनेकानेक प्रेत-पिशाच उसे उखाड़े डालते हैं। क्षितिज में संध्या की लालिमा नहीं है, भयंकर आग लगी हुई है। प्रलय-काल में देर नहीं।

जिस प्रकार ज्वालामुखी के लावा का प्रवाह आँख मूँदकर दौड़ पड़ता है, उसे ध्वस्त करता चलता है, उसी प्रकार राजकुमार का मानसिक आवेश भी अंधा होकर दौड़ रहा था।

‘क्यों प्रताप, आज अकेले ही वहाँ क्यों टहल रहे हो?‘

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