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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


प्रताप ने उदासीन मुस्कुराहट, छूँछी हँसी हँसते हुए कहा–‘कुछ नहीं भाभी, कुछ हो तब तो! संध्या की उदासी, निराली अटारी, मन में कुछ सनक आ गयी थी। अब कुछ नहीं। चलिए, आज हम लोग घूमने चलेंगे!’

‘प्रताप तुम टाल रहे हो। इसमें मुझे दुःख होता है। आज तक तुमने मुझसे कुछ छिपाया नहीं। दुःख-सुख हुआ, सब कहा। आज यही बात क्यों?’

प्रताप फिर बच्चों की तरह सिसकने लगा। उसने महिषी के चरणों की धूलि सिर पर लगा ली।

‘भाभी, तुम्हारा बच्चा ही ठहरा, कहूँ नहीं तो काम कैसे चले! कहूँगा, सब कहूँगा। पर क्षमा करो। इस समय चित्त ठिकाने नहीं है। फिर पूछ लेना।’

‘अच्छा, घूमने तो चलो।'‘

‘नहीं, इस समय मुझे अकेले छोड़ दो भाभी।’

‘क्यों, तुम्हीं ने अभी प्रस्ताव किया था न?’

‘भाभी, वह कपट था।’

‘प्रताप, तुम–और मुझसे कपट करो! कुमार, मैं इसे देवताओं की अकृपा के सिवा और क्या कहूँ, अच्छा जाती हूँ। किंतु देखो, तुम्हें अपना हृदय मेरे सामने खोलना पड़ेगा।’

रानी भी रोती-रोती चली गयीं। राजकुमार रिक्त दृष्टि से उसका जाना देखता रहा। फिर वह खड़ा न रह सका, वहीं अटारी के मुंडेरे पर बैठ गया।

महारानी ने देखा सम्राट उद्यान में खड़े हैं। रथ तैयार है। उन्होंने भी महारानी को अकेली आते देखा–उसका उतरा मुँह देखा, लटपटाती गति देखी। हृदय में एक धक्-सी हो गयी पूछ बैठे–‘क्यों, प्रताप कहाँ है? और तुम्हारी यह क्या दशा है?’

‘कुछ नहीं–महिषी ने भर्राये स्वर से कहा–चलिए घूमने।’

‘आज वह न चलेगा? बात क्या है, कुछ कहो तो? महाराज ने रूखे स्वर से पूछा।

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