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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


भृत्यवर्ग स्तंभित था, चकित था। हाथ बाँधे हुए तो था, पर हृदय में काँप रहा था। क्या होने को है?

राजमहिषी ने महाराज के निकट जाकर धीरे-धीरे कुछ बातें की।

महाराज ने कहा–‘यह सब कुछ नहीं, चलो प्रताप से एक बार मैं तो बातें कर लूँ।

प्रताप और महाराज आमने-सामने थे। प्रताप की आँखें भूमि देख रही थीं। किंतु भौंहें तन उठी थीं। महाराज हिमालय की तरह शांत थे। उन्होंने जिज्ञासा की– ‘भाई प्रताप, आज कैसे हो रहे हो?’

किंतु कुमार ने कोई उत्तर नहीं दिया।

सम्राट ने उनका हाथ थाम लिया और स्नेह से उसे सहलाने लगे। प्रताप के शरीर में एक झल्लाहट-सी होने लगी। विरक्ति और घृणा से क्रोध ने कहा कि एक झटका दो, हाथ छु़ड़ा लो। साहस भी था। पर भ्रातृभाव ने यह नौबत न आने दी। तो भी प्रताप ने कोई उत्तर न दिया।

‘प्रताप, न बोलोगे? हम लोगों के जन्म-जन्म के स्नेह की तुम्हें शपथ है जो मौन रहो।’

‘भैया’–यहाँ प्रताप का गला रुक गया। बड़ी चेष्टा करते हुए उसने कहा–‘अब स्नेह नहीं रह गया।’

‘क्यों, क्या हुआ?’ महाराज उस उत्तर से कुछ चकित हो गये।

‘भैया–क्षत्रिय-रक्त ने जोर किया और नदी का बाँध टूट गया–‘प्रताप ने वयस्क होने के बाद पहली बार भाई से आँखें मिलाकर कहना शुरू किया–‘जिस जीवन की कोई हस्ती न हो, वह व्यर्थ है। हम दोनों सगे भाई हैं, तो भी–मैं कोई नहीं और आप चक्रवर्ती! यह कैसे निभ सकता है?’

‘तो लो, तुम्हीं शासन चलाओ प्रताप!’

महाराज ने अपना खड्ग प्रताप की ओर बढ़ा दिया।

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