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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


यह सब सुनकर पंडितजी ने केवल यही उत्तर दिया–जिनके सिर पर पड़ेगा वह भुगत लेगा। मुझे इसकी चिंता करने की क्या आवश्यकता?

एक चपरासी ने साहस बाँधकर कहा–इन असमियों को आप जितना गरीब समझते हैं, उतने गरीब ये नहीं हैं। इनका ढंग ही ऐसा है, भेष बनाये रहते हैं। देखने में ऐसे सीधे-सादे मानो बेसींग की गाय है, लेकिन सच मानिए, इनमें का एक-एक आदमी हाईकोर्ट का वकील है।

चपरासियों के इस वाद-विवाद का प्रभाव पंडितजी पर कुछ न हुआ। उन्होंने प्रत्येक गृहस्थ से दयालुता और भाईचारे का आचरण करना आरम्भ किया। सबेरे आठ बजे तक वह गरीबों को बिना दाम औषधियाँ देते, फिर हिसाब-किताब का काम देखते। उनके सदाचरण ने असामियों को मोह लिया। मालगुजारी का रुपया जिसके लिए प्रति वर्ष कुरकी तथा नीलाम की आवश्यकता होती थी, इस वर्ष एक इशारे पर वसूल हो गया। किसानों ने अपने भाग सराहे और वे मनाने लगे कि हमारे सरकार की दिनोंदिन बढ़ती हो।

कुँवर विशालसिंह अपनी प्रजा के पालन-पोषण पर बहुत ध्यान रखते थे। वे बीज के लिए अनाज देते और मजूरी और बैलों के लिए रुपये, फसल कटने पर एक डेढ़ वसूल कर लेते। चाँदपार के कितने ही असामी इनके ऋणी थे। चैत का महीना था। फ़सल कट-कटकर खलिहानों में आ रही थी। खलिहानों में से कुछ नाज घर आने लगा था।

इसी अवसर पर कुँवर साहब ने चाँदपारवालों को बुलाया और कहा–हमारा नाज और रुपया बेबाक कर दो। यह चैत का महीना है। जब तक कड़ाई न की जाए तुम लोग डकार नहीं लेते। इस तरह काम नहीं चलेगा।

बूढ़े मलूका ने कहा–सरकार, भला असामी कभी अपने मालिक से बेबाक हो सकता है? कुछ अभी लिया जाय, कुछ फिर दे देंगे। हमारी गर्दन तो सरकार की मुट्ठी में है।

कुँवर साहब–आज कौड़ी-कौड़ी चुकाकर यहाँ से उठने पाओगे। तुम लोग हमेशा इसी तरह हीला-हवाला किया करते हो।

मलूका (विनय के साथ) हमारा पेट है, सरकार की रोटियाँ है, हमको और क्या चाहिए। जो कुछ उपज है वह सब सरकार की ही है।

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