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हिन्दी की आदर्श कहानियाँ

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8474
आईएसबीएन :978-1-61301-072

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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ


‘सौदागर, तुझे एक पैसा कम करना भी क्या बहुत है?’ उसकी आकांक्षा बिलख रही थी। बालिका की बड़ी आँखें उस सौदागर को, उन चिड़ियों को अपनी ओर खींच रही थीं। उसमें निराशा-आशा गूँगी-सी मुँह फैलाये कह रही थी–‘जरा ठहरो तो, जाते कहाँ हो?’

वृद्धा ने बालिका के सिर पर हाथ फेरकर पुचकारकर कहा–‘जाने दे बेटी, दूसरा कोई आवेगा तो ले दूँगी।’ इस खोखले ढांढस को जैसे बालिका ने सुना ही नहीं। वह उठी और डबडबायी आँखों से घर के भीतर चली गयी।

किन्तु न जाने क्या बात थी कि आज सौदागर रामू के हृदय में उस भोली बालिका की निराश आँखें चुभ गयीं। वह ‘नहीं’ करके लौटा तो, पर उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे वह गंगा के किनारे तक जाकर बिना नहाये लौट रहा हो। उसने इस भाव को भुलाने की कोशिश की, किन्तु जाने क्यों वह स्वयं उसमें भूल गया। उस पर जाने कहाँ से चिनगारियाँ बरसने लगीं–नहीं, ठीक नहीं कर रहा हूँ। उस बेचारी बच्ची के कोमल हृदय पर ईंट मारकर चला आया। उसका चेहरा कैसा उतर गया था। और उसकी आँखें–उफ़!– कैसे देख रही थीं!...नहीं, नहीं...यह ठीक नहीं। रोजगार का मतलब थोड़े ही है कि मैं इस तरह से बे-दिल का हो जाऊँ। क्या होता, यदि मैं एक ही पैसे में उसे दे देता तो?...तो घाटे का पहाड़ तो न टूट पड़ता। न सही, एक वक्त तम्बाखू न पीता, बिना साग के खा लेता।...बच्चों का मन तोड़ना, राम-राम, भगवान की मूर्ति तोड़ना है। चलूँ, दे आऊँ, पर... अब क्या? अब तो इतनी दूर चला आया, और फिर रामू, तुम भी पूरे बुद्धू हो। हाँ, रोजगार करने चले हो कि इन छोटी-मोटी बातों पर ताना-बाना बुनने। इसमें तो यह होता ही है।

‘यही हाल रहा तो कर चुके अपना काम। कोई न खरीद सके तो इसमें अपना क्या वश? राम की मर्जी है...।’

रामू ने मानो जागकर, ठीक से सिर उठाया। एक साँस के बहाने दिल में हिम्मत भरी। इतने तर्क-वितर्क पर भी उसने देखा कि काम नहीं चल रहा है। कुछ है जो काट-सा रहा है, जो मस्तिष्क के तर्क से अधिक बली है। रामू ने देखा कि चुप रहने से तो विचार उमड़ते चले आते हैं। जिस चीज को दबाना चाहता है वह उमड़ी ही पड़ती है। इसलिए उसने सोचा कि चिल्लाकर आवाज के बहाने अन्दर वाली चीज का उफान बाहर कर दूँ। इसलिए ‘पर...नहीं’ के बाद उसने सिर ऊपर किया और साँस के बहाने दिल में हिम्मत भरते हुए कहा–‘लल्ला की चि...।’ पर यह क्या? उसकी आवाज बैठ-सी गयी थी? शब्द उसके गले में अटक रहे। गले में वह जोर नहीं रह गया। उसका मन बोलने को कर ही नहीं रहा था। उसकी वह शक्ति कहाँ चली गयी? वह चाहता था कि बिना बोले ही उसकी चिड़िया बिक जायँ तो अच्छा। किन्तु किसी ने सामने से उसे रोककर बड़ी गम्भीर आवाज में कहा–‘चले कहाँ जा रहे हो?’ रामू लौट पड़ा। चाहे जो हो, वह यह न करेगा। बच्ची के खून से सींच-सींचकर अपना बाग नहीं लगाना चाहता था। उसके मन के टूटे हुए टुकड़ों से अपना महल उठाना उसे असह्य था। उसी दरवाजे पर पहुँचकर उसने पुकारा–‘माई, ले लो चिरैया।’

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