कहानी संग्रह >> हिन्दी की आदर्श कहानियाँ हिन्दी की आदर्श कहानियाँप्रेमचन्द
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प्रेमचन्द द्वारा संकलित 12 कथाकारों की कहानियाँ
मौसी
[ कहानी-लेखक और नाटककार श्री भुवनेश्वर प्रसाद १९२५-१९३८ के युग के प्रयोगवादी एकांकीकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। ]
मानव जीवन के विकास में एक स्थल ऐसा आता है, जब वह परिवर्तन पर विजय पा लेता है। जब हमारे जीवन का उत्थान या पतन, न हमारे लिए कुछ विशेषता रहता है, न दूसरों के लिए कुछ कुतूहल। जब हम केवल जीवित रहने के लिए ही जीवित रहते हैं और जब ‘मौत आती है; पर नहीं आती।’
बिब्बो जीवन की उसी ‘मंज़िल’ में थी। मुहल्लेवाले उसे सदैव से वृद्धा ही जानते थे, मानो वह अनन्त गर्भ से वृद्धा ही उत्पन्न होकर एक अनन्त अचिन्त्य-काल के लिए अमर हो गयी थी। उसकी ‘हाथी से बेटों की बात’ नयी-नवेलियाँ उसका हृदय न दुखाने के लिए मान लेती थीं। उसका कभी इस विस्तृत संसार में कोई था भी, यह कल्पना का विषय था। अधिकांश के विश्वासकोष में वह जगन्नियन्ता के समान ही एकाकी थी; पर वह कभी युवती भी थी, उसके भी नेत्रों में अमृत और विष था। झंझा की दया पर खड़ा हुआ रूखा वृत्त भी कभी धरती का हृदय फाड़कर निकला था, बसंत में लहलहा उठता था और हेमन्त में अपनी विरही जीवन-यापन करता था, पर यह सब वह स्वयं भूल गयी थी। जब हम अपनी असंख्य दु:खद स्मृतियाँ नष्ट करते हैं, तो स्मृतिपट से कई सुख के अवसर मिट जाते हैं, जिसे वह न भूली थी उसका भतीजा-बहन का पुत्र-बसंत था। आज भी जब वह अपनी गौओं को सानी कर, कच्चे आँगन के कोने में लौकी-कुम्हड़े की बेलों को सँवारकर प्रकाश या अन्धकार में बैठती, उसकी मूर्ति उसके सम्मुख आ जाती।
बसंत की माता का देहांत जन्म से दो महीने बाद हो गया था और तैंतीस वर्ष पूर्व उसका पिता पीले और कुम्हलाये मुख से यह समाचार और बसंत को ले कर चुपचाप उसके सम्मुख खड़ा हो गया था...इससे आगे की बात बिब्बो स्वप्न में भी न सोचती थी। कोढ़ी यदि अपना कोढ़ दूसरों से छिपाता है तो स्वयं भी उसे नहीं देख सकता–इसके बाद का जीवन उसका कलंकित अंग था।
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