नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— (एकदम) अच्छा बाबा, तू जीती मैं हारा। गाय आँगन में ही बँधेगी। चल बेटा गोबर, उधर से गाय को आँगन में ले चल।
[शोर बराबर उठता रहता है। गोबर लौटता है। धनिया, होरी घर में जाते हैं। मातादीन का प्रवेश सत्तर वर्ष के बूढ़े पंडित हैं।]
दातादीन— कहाँ हो होरी, होरी...
होरी— (आकर) पालागन पण्डितजी। आइये, आइये...
दातादीन— तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें। सुना, बड़ी सुन्दर है।
होरी— हाँ हाँ, आइये। आपकी ही गाय है। आइये।
[दोनों अन्दर आते हैं। पीछे-पीछे दो-चार और व्यक्ति उत्सुकता से जाते हैं। दो-चार लौटते हैं। रूपा, सोना के साथ बच्चे आते-जाते हैं। तभी दातादीन, धनिया और होरी बाहर आते हैं।]
दातादीन— कोई दोष नहीं, बेटा ! बाल, भौंरी सब ठीक है। भगवान चाहेंगे तो तुम्हारे भाग खुल जायेंगे। ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह ! बस रातिब न कम होने पाये। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।
होरी— (गद्गद्) सब आपका आसीरवाद है, दादा।
दातादीन— (पीक थूकते हुए) मेरा आसीरबाद नहीं है, बेटा भगवान की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपये नगद दिये?
होरी— भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज। नकद गिनाये, पूरे चौकस।
दातादीन— (एक बार होरी को देखते हैं फिर प्रसन्न होकर) कोई हरज नहीं बेटा, कोई हरज नहीं। भगवान् कल्याण करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें, बच्चे को छोड़कर।
धनिया— अरे नहीं महाराज। इतना दूध कहाँ? बुढ़िया तो हो गई है। फिर यहाँ रतिब कहाँ धरा है।
दातादीन— (धनिया को मर्मभरी दृष्टि से देख कर) ठीक है लेकिन बाहर न बाँधना, इतना कहे देते हैं।
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