नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
धनिया (होरी को देखकर) सुन लिया (दातादीन से) नहीं महाराज बाहर क्या बाँधेंगे, भगवान दे तो इसी आँगन में तीन गायें और बंध सकती हैं।
[अनुभवी पंडित जी हँसते हुए जाते हैं। धनिया, होरी अन्दर जाते हैं। एक-दो क्षण आना-जाना लगा रहता है। होरी के भाई हीरा सोभा उधर से जाते हैं पर रुकते नहीं। सन्ध्या गहरी होती है मंच पर प्रकाश गदराता है। होरी धनिया आते हैं।]
होरी— सारा गाँव गाय देखने आया पर सोभा न आया, न हीरा।
धनिया— नहीं आये तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है !
होरी— तू तो बात समझती नहीं, लड़ने को तैयार रहती है। भगवान् ने जब यह दिन दिखलाया है तो हमें सिर झुका कर चलना चाहिए। आदमी को अपने सगों के मुँह से अपनी भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है बाहर वालों के मुँह से नहीं। दोनों को लाकर दिखा देना चाहिए नहीं तो कहेंगे...
धनिया— (तिनककर एकदम) मैंने तुमसे सौ बार हजार बार कह दिया मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करो...
होरी— धनिया तू तो...
धनिया— (पूर्वतः) मैं तो क्या? मैं पूछती हूँ सारे गांव ने सुना क्या उन्होंने न सुना होगा? सारा गाँव देखने आया उन्हीं के पाँव में मेहंदी लगी हुई थी, मगर आयें कैसे? जलन आ रही होगी कि इसके घर गाय आ गई, छाती फटी जाती होगी। (जाती हुई) मैं तो मिट्टी का तेल लाने जा रही हूँ। किसी को बुलाने मत भेज देना।
[जाती है। होरी सिर हिलाता है, रूपा आती है।]
होरी— रूपा, रूपा, जरा जाकर देख कि हीरा काका आ गए हैं कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना दादा ने तुम्हें बुलाया है।
रूपा— (ठुनक कर) छोटी काकी मुझे डाँटती हैं।
होरी— काकी के पास क्या करने जायगी...
रूपा— सोभा काका भी मुझे चिढ़ाते हैं, कहते हैं...मैं न कहूँगी।
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