नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
धनिया— (तेज होकर) हूँ, समझी, तो तुम्हें भाइयों का डर है, लेकिन मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़ती देख कर किसी की छाती फटती है तो फट जाय।
होरी— (विनम्र स्वर) धीरे-धीरे बोल महारानी। मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँ तू क्या जाने। चर्चा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपये दबा लिये थे। भाइयों को धोखा दिया था...
धनिया— हीरा कहता होगा?
होरी— सारा गाँव कह रहा है। हीरा को क्यों बदनाम करूँ।
धनिया— सारा गाँव नहीं कह रहा है। अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जाकर पूछती हूँ न कि तुम्हारे बाप कितने रुपये छोड़ कर मरे थे। (बाहर जाती है) डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गये और अब हम बेईमान हैं ! मैं कहती हूँ रख लिये रुपये, दबा लिये। हीरा, सोभा और संसार को जो करना हो कर ले। क्यों न रुपये रख लें? दो-दो संडों का ब्याह नहीं किया !
[रुकती नहीं, चीखती हुई मार्ग पर चढ़ जाती है। होरी के घर का द्वार पीछे हट जाता है। दूसरे द्वार भी। धनिया के पीछे होरी भी आता है।]
होरी— बिगड़ती है तो चण्डी बन जाती है। सुन तो, अरे सुन !
[धनिया नहीं सुनती। चीखती है, आदमी आने लगते हैं]
धनिया— कहाँ है हीरा? बाहर तो आ। तू हमें देख क्यों जलता है? हमें देख कर क्यों तेरी छाती फटती है? पाल-पोस कर जवान कर दिया (हीरा का प्रवेश) हमने न पाला होता तो आज कहीं भीख माँगते होते...
हीरा— हमने न पाला होता...बड़ी आई पालने वाली? तेरे घर में कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे और दिन भर काम करते थे। दिन-दिन सूखा गोबर बीना करते थे। उस पर भी बिना दस गाली दिये रोटी न देती थी। तेरी जैसी राच्छसिन के हाथ में पड़ कर जिन्दगी तलख हो गई।
धनिया— (तेज होकर) जबान सँभाल नहीं तो जीभ खींच लूंगी। राच्छसिन तेरी औरत होगी। तू है किस फेर में मुँडीकाटे, टुकड़खोर, नमकहराम...
दातादीन— इतना कटु वचन क्यों कहती है धनिया। नारी का धर्म है कि गम खाय। वह तो उजड्ड है। क्यों उसके मुँह लगती है?
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