नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 29 पाठक हैं |
‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
पटेश्वरी— बात का जवाब बात है, गाली नहीं। तूने लड़कपन में उसे पाला-पोसा, लेकिन यह क्यों भूल जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में थी।
धनिया— अच्छा तुम रहने दो लाला। मैं सब को पहचानती हूँ। मैं गाली दे रही हूँ, वह फूल बरसा रहा है, क्यों?
दुलारी— बड़ी गाल दराज औरत है भाई। मरद के मुँह लगती है।
हीरा— चली जा मेरे द्वारे से नहीं तो जूतों से बात करूँगा। झोंटा पकड़ कर उखाड़ लूँगा। गाली देती है डाइन। बेटे का घमण्ड हो गया है...
[भीड़ में अचरज के भाव दिखाई देते हैं]
होरी— (एकदम आगे बढ़ता है) अच्छा बस, अब चुप हो जाओ हीरा। अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूँ। जब मेरी पीठ में धूल लगती है, तब इसी के कारण।
दातादीन— बड़ा निर्लज्ज है हीरा।
पटेश्वरी— अजी गुण्डा है।
दुलारी— कपूत है।
धनिया— सुन लो कान खोल के। भाइयों के लिये मरते रहते हो। ये हैं भाई, ऐसे भाई का मुँह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा...
होरी— फिर क्यों बक-बक करने लगी तू। घर क्यों नहीं जाती।
धनिया— (धम्म्-से जमीन पर बैठती है और आर्त स्वर में पुकारती है) अब तो इसके जूते खाके जाऊँगी। जरा इसकी मर्दुमी देख लूँ कहाँ है गोबर (होरी उसे खींचता है) अब किस दिन काम आयेगा तू? देख रहा है बेटा, तेरी माँ को जूते मारे जा रहे हैं !
(एकदम छुड़ाकर हीरा को धक्का देती है। वह गिर पड़ता है) कहाँ जाता है, जूते मार, मार जूते, देखूँ तेरी मर्दुमी !
[होरी तेजी से उसे पकड़ कर खींचता है और घर में ले आता है]
होरी— तू चलेगी नहीं...चल...मैं कहता हूँ यूँ नहीं मानेगी...
[भीड़ सिर हिला-हिलाकर अपना मत प्रकट करती है। यहीं पर्दा गिरता है।]
|