नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
भोला— भला आदमी वही है जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके उसे गोली मार देनी चाहिए।
होरी— यह तुमने लाख रुपये की बात कह दी भाई।
भोला— जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है उसी तरह औरत के मर जाने से मर्द के भी हाथ-पाँव कट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी भी देने वाला नहीं।
होरी— हाँ दादा, पुरानी मसल झूठी थोड़ी है। बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई नहीं ठीक कर लेते?
भोला— ताक में हूँ महतो, पर कोई जल्दी फँसती नहीं। सौ-पचास...
होरी— (एकदम) अब मैं फिराक में रहूँगा। भगवान चाहेंगे तो जल्दी ही घर बस जायगा।
भोला— (गुदगुदी)बस यही समझ लो कि उबर जाऊँगा भैया। घर में खाने को भगवान् का दिया बहुत है।
होरी— मेरी ससुराल में एक मेहरिया है। तीन-चार साल हुए उसका आदमी उसे छोड़ कर कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके गुजर कर रही है। बाल-बच्चा भी कोई नहीं है। देखने-सुनने में भी अच्छी है। बस लच्छमी समझ लो।
भोला— अब तो तुम्हारा आसरा है महतो। छुट्टी हो तो चलो एक दिन देख आयें।
होरी— ना अभी नहीं। मैं ठीक करके तुमसे कहूँगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है।
भोला— जैसी तुम्हारी इच्छा। उतावली काहे की। हाँ, इस गाय पर मन ललचाया हो तो ले लो।
होरी— ना, यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता।
भोला— तुम तो ऐसी बातें करते हो जैसे हम तुम दो हों। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चाहे देना। अस्सी रुपये में ली थी, तुम अस्सी रुपये ही दे देना, जाओ।
होरी— लेकिन मेरे पास नकद नहीं है दादा, समझ लो।
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