नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
भोला— तो तुमसे नगद माँगता कौन है? आओ, ले जाओ (बाहर की ओर बढ़ता है) तुम भी याद करोगे। ब्याते ही छः सेर दूध ले लेना। मालिक नब्बे रुपये देते थे पर उनके यहां गउओं की क्या कदर तुम्हारे घर आराम से रहेगी। उसकी सेवा करोगे, प्यार करोगे, चुमकारोगे; गऊ हमें आसीरबाद देगी।
होरी— जरूर देगी, दादा।
भोला— (ठिठककर) तुमसे क्या कहूँ भइया। घर में चंगुल-भर भी भूसा नहीं रहा। इतने जानवरों को क्या खिलाऊँ, यही चिन्ता मारे डालती है।
होरी— तुमने हमसे पहले क्यों न कहा? हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया।
भोला— (माथा ठोंककर) इसलिये नहीं कहा भैया कि सबसे अपना दुख क्यों रोऊँ। करता कोई नहीं, हँसते सब हैं।...हो सके, तो दस-बीस रुपया भूसे के लिए दे दो।
होरी— (मुड़कर मंच के बीच आ जाता है) रुपये तो दादा मेरे पास नहीं हैं। हाँ, थोड़ा भूसा बचा है तुम्हें दे दूँगा। चल कर उठवा लो, भूसे के लिए तुम गाय बेचोगे और मैं लूँगा ! मेरे हाथ न कट जायँगे !
भोला— (आर्द्र कंठ से) तुम्हारे बैल भूखे न मरेंगे?
होरी— नहीं दादा, अब की भूसा अच्छा हो गया था।
भोला— मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की।
होरी— तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना गैर समझ लिया...
भोला— (बाहर को जाते हुए) मुदा यह गाय तो लेते जाओ।
होरी— (दूसरी तरफ बढ़ता है) अभी नहीं दादा, फिर ले लूँगा।
भोला— तो भूसे का दाम दूध में कटवा लेना।
होरी— (ठिठककर दुखी स्वर में) दाम-कौड़ी की इसमें कौन-सी बात है, दादा ! मैं एक-दो जून तुम्हारे घर खा लूँ तो तुम मुझसे दाम माँगोगे?
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