नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
धनिया— चला तो जाता है पर...
होरी— तो बस समझ ले विपत ही आ पड़ी है। धरम के सामने यह कौन सी बड़ी बात है।
धनिया— बिपत में आदमी कितना बेबस हो जाता है।
होरी— ऐसा न हो तो लोग बिपत से इतना डरें क्यों?
धनिया— गोबर से भी पूछ लेते।
होरी— पूछ लेंगे पर वह तो आजकल...(एकदम) आजकल वह अड़ता नहीं।
धनिया— हाँ, आजकल वह अड़ता नहीं, लेकिन रूपा, सोना का क्या करोगे? गाय पर जान देती हैं।
होरी— इनके सामने न ले जाऊँगा। कहीं चली जायेंगी तो गाय झिंगुरी के पास पहुँचा दूँगा।
धनिया— पहुँचा आना (कहते-कहते रो पड़ती है) पर मैं उसे जाते कैसे देख सकूँगी। नहीं, मुझसे न देखा जायेगा।
होरी— और जैसे मैं देख सकूँगा। धनिया, ऐसा कोई माई का लाल नहीं जो इस वक्त मुझे पच्चीस रुपये दे दे, फिर चाहे पचास रुपये ही ले ले।
धनिया— ऐसा कोई होता तो फिर बात ही क्या थी।
होरी— सच कहता हूँ अब मुझसे गाय के सामने नहीं खड़ा हुआ जाता। वह मानो अपनी काली-काली आँखों से आँसू भर कर कहती है— क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया। तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी तुम्हें न बेचूँगा। यही वचन था तुम्हारा ! मैंने तो कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दे दिया वही खाकर संतुष्ट हो गई !
धनिया— (रुँधा स्वर) लड़कियां तो चली गईं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते? जब बेचना ही है तो अभी बेच दो।
होरी— (कम्पित स्वर) मेरा तो हाथ नहीं उठता, धनिया। उसका मुँह नहीं देखती !
धनिया— यह तो देखती हूँ पर...
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