नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 29 पाठक हैं |
‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— अब रहने दे, रुपये सूद पर लूँगा। भगवान् ने चाहा तो सब अदा हो जायँगे।
धनिया— (चकित) क्या...क्या गाय न बेचोगे?
होरी— नहीं। तीन-चार सौ होते ही क्या हैं। एक बार ऊख लग जाय...
धनिया— (प्रेम और गर्व से) और क्या? इतनी तपस्या के बाद घर में गऊ आयी। उसे भी बेच दो। ले लो कल रुपये। जैसे और सब चुकाये जायँगे वैसे इसे भी चुका देंगे।
होरी— बस यही ठीक है, लेकिन भीतर बड़ी उमस है। हवा बन्द है, बरखा होगी। गाय को बाहर हवा में बाँधे देता हूँ।
धनिया— नहीं, नहीं बाहर न बाँधो।
होरी— तू तो झूठमूठ डरती है। अरी उसके भी तो जान है। हवा में आराम से रहेगी। [कहते-कहते दोनों अन्दर जाते हैं। प्रकाश से फिर समय का व्यवधान होता है। होरी फिर बाहर आकर एक ओर चला जाता है। एक क्षण बाद हीरा सशंक भाव से होरी के घर की ओर बढ़ता है, झिझकता है, बढ़ता है, झिझकता है, एक बार लौट जाता है फिर आता है, हाथ में चिलम है। इस बार दृढ़ता से मकान के पीछे की ओर चला जाता है। उधर गाय बँधी है। एक बार मंच से बाहर हो जाता है फिर घर के पीछे के तरफ दिखाई देता है; तभी होरी का प्रवेश। वह हीरा को देखकर ठिठकता है]
होरी— (ठिठक कर) वहाँ कौन खड़ा है?
हीरा— (सामने आकर) मैं हूँ दादा, तुम्हारे कौड़े से आग लेने आया था।
होरी— (प्रसन्न होकर) अच्छा। तमाखू है कि ला दूँ?
हीरा— नहीं तमाखू तो है, दादा।
होरी— मैं सोभा को देखने गया था, वह आज बहुत बेहाल है।
हीरा— हाँ, पर कोई दवाई न खाय, तो क्या किया जाय। उसके लेखे तो बैद, डाक्टर, और हकीम अनाड़ी हैं। भगवान् के पास जितनी अक्कल है वह उसके और उसकी घरवाली के हिस्से पड़ गई।
होरी— यही तो बुराई है उसमें। अपने सामने किसी को गिनता ही नहीं। और चिढ़ने तो बीमारी में सभी हो जाते हैं।
|