नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— और जो गोबर इसी घर में लाये?
धनिया— तो ये दोनों लड़कियाँ किसके गले बाँधोगे? फिर बिरादरी में तुम्हें कौन पूछेगा? कोई द्वार पर खड़ा तक होगा नहीं।
होरी— उसे इसकी क्या परवाह?
धनिया— इस तरह नहीं छोड़ूँगी लाला को। मर-मर कर मैंने पाला है, और झुनिया आकर राज करेगी। मुँह में लुआटी लगा दूँगी रांड़ के।
(गोबर का घबराये हुए आना)
गोबर— दादा, दादा, सुन्दरिया को क्या हो गया? क्या काले ने छू लिया। वह तो पड़ी तड़प रही है। (तीनों घबरा कर बाहर दौड़ते हैं)
होरी— क्या असगुन मुँह से निकालते हो अभी तो मैं देखे आ रहा हूँ, लेटी थी।
धनिया— लेटी थी ! मैं कितना जूझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं पर...
[बाहर निकल जाते हैं। तभी धनिया की चीख उठती है और होरी तेजी से आकर दूसरी ओर निकल जाता है, परदा गिरने लगता है, गिरते गिरते शोर उठता है। लोग तेजी से आते दिखाई देते हैं, परदा गिर पड़ता है। कुछ स्वर कानों में पड़ते हैं— हाय हाय गाय को विष दे दिया।’ ‘ऐसी वारदात तो इस गाँव में कभी नहीं हुई।’ क्या गाय थी कि बस देवता रही। पांच सेर दूध था।’ ‘आते देर न हुई और यह वज्र गिर पड़ा।’ रुदन तेज होता जाता है। परदा गिरते ही सब समाप्त]
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