नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 29 पाठक हैं |
‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
चौथा दृश्य
[परदा उठते-उठते होरी के द्वार पर मारपीट का दृश्य। होरी धनिया को मार रहा है। धनिया गाली दे रही है। दोनों लड़कियाँ बाप के पाँव से लिपटी चिल्ला रही हैं। गोबर माँ को बचा रहा है]
होरी— तू बिना पिटे नहीं मानेगी। समझ ले तू थाने गई तो मार ही डालूँगा।
धनिया— मार ले, मार डाल दाढ़ीजार, मूँड़ी काटे। मैं बिना लाला को बड़े घर भिजवाये मानूँगी नहीं। तीन साल चक्की पिसवाऊँगी, तीन साल...
होरी— (पीट कर) चक्की पिसवाएगी। मैं अभी तुझे पीसे देता हूँ। ले पिसवा चक्की...चुड़ैल...
गोबर— दादा, दादा रहने दो दादा...
धनिया— तू चाहे जितना मार ले राक्षस। मैं उसे न छोडूँगी। वह बैरी है, पक्का बैरी। और बैरी को मारने में पाप नहीं, छोड़ने में पाप है।
होरी— तू नहीं मानेगी?
धनिया— नहीं, नहीं, नहीं, उसे तीरथ करना पड़ेगा। भोज देना पड़ेगा। इस धोखे में न रहे लाला...
होरी— हट जा गोबर (गोबर पीछे खींचता है) मैं आज इसके प्राण ही निकाल दूँ (लात मारता है)
धनिया— (चीख कर) तेरी लात टूटे, तेरे कीड़े पड़ें, दाढ़ीजार, तुझे भी नहीं छोड़ूँगी। तुझसे गवाही दिलवाऊँगी। बेटे के सिर पर हाथ रख कर गवाही दिलवाऊँगी। राक्षस...
होरी— (मारने झपटता है) राक्षसिन चुड़ैल...
[तभी गाँव के लोग आ जाते हैं। शोभा है, दातादीन है। दातादीन डाँटते हैं।]
दातादीन— यह क्या है होरी, तुम बावले हो गये हो क्या? कोई इस तरह घर की लक्ष्मी पर हाथ छोड़ता है। तुम्हें तो यह रोग न था। क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग गई?
होरी— (पालागन करके) महाराज, तुम इस बखत न बोलो। मैं आज इसकी बान छुड़ाकर दम लूँगा। मैं जितना ही तरह देता हूँ उतना ही यह सिर चढ़ती जाती है !
धनिया— (सजल क्रोध) महाराज, तुम गवाह रहना। मैं आज इसके हत्यारे भाइयों को जेहल भेजवा कर पानी पिऊँगी। इसके भाई ने गाय को माहुर खिला कर मार डाला। अब जो मैं थाने में रपट लिखाने जा रही हूँ तो यह हत्यारा मुझे मारता है...
|