नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
दातादीन— वह चुप कैसे रहे, चुप तुम रहो। जो बात है उसका पता लगाना चाहिए। (शोभा से) तुम कुछ जानते हो शोभा, क्या बात हुई?
[होरी सिर झुकाये चला जाता है]
शोभा— (लेटे-लेटे) मैं तो महाराज, आठ दिन से बाहर नहीं निकला। होरी दादा कभी-कभी जाकर कुछ दे आते हैं उसी से काम चलता है। रात भी वह मेरे पास गये थे। किसने क्या किया मैं कुछ नहीं जानता।
दातादीन— हीरा से तुम्हारी कुछ बात नहीं हुई?
शोभा— बात तो कुछ नहीं हुई। हाँ, कल साँझ वह मेरे घर खुरपी माँगने आया था। कहता था एक जड़ी खोदनी है। फिर तब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई।
धनिया— (एकदम) देखा पण्डित दादा, यह उसी का काम है। शोभा के घर से खुरपी माँग कर लाया और कोई जड़ी खोदकर गाय को खिला दी।
दातादीन— यह बात साबित हो गई तो उसे हत्या लगेगी। पुलिस कुछ करे या न करे, धरम तो बिना दण्ड दिये न रहेगा। चली तो जा रुपिया, हीरा को बुला ला। कहना पण्डित दादा बुला रहे हैं।
[रूपा जाती है]
दातादीन— अगर उसने हत्या नहीं की है तो गंगाजली उठा ले और चौरे पर चल कर कसम खाय...
धनिया— महाराज, उसके कसम का भरोसा नहीं। जब इसने झूठी कसम खा ली जो बड़ा धर्मात्मा बनाता है तो हीरा का क्या विश्वास।
गोबर— खा ले झूठी कसम, बंस का अंत हो जाय। बूढ़े जीते रहें जवान जीकर क्या करेंगे !
रूपा— (आकर) काका घर में नहीं हैं पण्डित दादा। काकी कहती हैं कहीं चले गये।
दातादीन— कहां चले गये पूछा नहीं?
रूपा— कहती है बता कर नहीं गये। लुटिया, डोरी डण्डा सब लेकर गये हैं। साइत रुपये भी ले गये। काकी ने आले में रखे थे। वहाँ नहीं हैं।
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