नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
धनिया— मुँह में कालिख लगा कर भागा है।
शोभा— भाग के कहाँ जायगा। गंगा नहाने न चला गया हो !
धनिया— गंगा जाता तो रुपये क्यों ले जाता और आजकल कोई परब भी तो नहीं है।
[सब एक दूसरे को देखते हैं]
एक व्यक्ति— हीरा ने अवश्य जहर दिया है।
दूसरा व्यक्ति— हाँ, जब देखा भेद खुल गया, अब जेहल जाना पड़ेगा, हत्या अलग लगेगी तो भाग गया।
दातादीन— भागने से बच नहीं सकता। धरम उसे नहीं छोड़ेगा। भगवान उसे अवश्य दण्ड देंगे। मैं खुद जाकर पता लगाता हूँ।
[दातादीन लकड़ी सँभाल कर जाते हैं। पीछे-पीछे लोग भी। होरी बाहर से आता है। धनिया की ओर आँख बचाकर देखता है। अन्दर चला जाता है। गोबर और धनिया भी जाते हैं। एक क्षण के लिये मंच खाली हो जाता है ! फिर दूसरी ओर से शोर पास आता है। दूसरे क्षण दारोगा जी वहाँ प्रवेश करते हैं। पीछे-पीछे हाँथ बाँधे दातादीन, झिंगुरी सिंह, नोखेराम, चार प्यादे, लाला पटेश्वरी आदि हैं।]
दारोगाजी— होरी कहां है?
दातादीन— (आवाज लगाकर) होरी, होरी महतो—
[होरी आता है। दारोगा जी को देखकर काँपता है। सिमट जाता है। दारोगा एक क्षण उसे भाँपते हैं। फिर पूछते हैं]
दारोगा— तुम्हें किस पर शुबहा है ! (धनिया भी आती है)
होरी— (जमीन छूकर और हाथ बाँधकर) मेरा शुबहा किसी पर नहीं है सरकार, गाय अपनी मौत से मरी है। बुड्ढी हो गई थी।
धनिया— गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने। सरकार ऐसे बौड़म नहीं हैं कि जो कुछ कह दोगे मान लेंगे। यहाँ जाँच-तहकीकात करने आये हैं।
दारोगा— यह औरत कौन है?
(दातादीन, पटेश्वरी, मंगरू, झिंगुरी सिंह — एक साथ) होरी की घरवाली है सरकार।
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