लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक)

होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476
आईएसबीएन :978-1-61301-161

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

29 पाठक हैं

‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है


पटेश्वरी— कहाँ की बात हुजूर ! दस मिल जाय तो हजार समझिये। पचास तो पचास जनम में भी मुमकिन नहीं, और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जाय।

दारोगा— (सोचकर) तो फिर उसे सताने से क्या फायदा। मैं ऐसों को नहीं सताता जो आप ही मर रहे हों।

पटेश्वरी— (एकदम) नहीं हुजूर, ऐसा न कीजिए। नहीं तो फिर हम कहाँ जायँगे। हमारे पास दूसरी कौन-सी खेती है !

दारोगा— तुम इलाके के पटवारी हो जी, कैसी बातें करते हो?

पटेश्वरी— जब ऐसा ही कोई अवसर आ जाता है तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैं। नहीं तो पटवारी को कौन पूछता है।

दारोगा-अच्छा आओ तीस रुपये दिलवा दो। बीस रुपये हमारे दस तुम्हारे।

पटेश्वरी— चार मुखिया हैं। इसका ख्याल कीजिए।

दारोगा— अच्छा आधे-आधे रखो और जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।

[होरी का प्रवेश, प्रसन्न है। अँगोछे में रुपये बंधे हैं। तभी सहसा धनिया उसके पास पहुँचती है। अब तक वह घर के द्वार से झाँक-झाँक कर देख रही थी। एक बार आगे तक जाकर पटेश्वरी व दारोगा की बात भी सुन गयी थी। ताक में थी। तुरन्त आँगोछा छीन लेती है। रुपये बिखर जाते हैं। वह फुंफकारती है।]

धनिया— ये रुपये कहाँ लिये जा रहा है? बता। घर के परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अँजुली भर रुपये लेकर चला है इज्जत बचाने ! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत ! दारोगा तलासी ही तो लेगा। ले ले जहाँ चाहे तलासी। एक तो सौ रुपये की गाय गई उस पर से यह पलेथन, वाह री तेरी इज्जत !

[सब स्तम्भित-से खड़े देखते हैं। दारोगा जी का मुँह उतर जाता है। खिसिया कर बोलते हैं]

दारोगा— मुझे ऐसा मालूम होता है कि इस शैतान की ख़ाला ने हीरा को फँसाने के लिये खुद गाय को जहर दे दिया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book