नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
दारोगा— तो इसे बुलाओ, मैं पहले इसी के बयान लिखूँगा। वह कहाँ है— हीरा?
दातादीन— वह तो आज सबेरे से ही कहीं चला गया है सरकार।
दारोगा— मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।
होरी— (सहम कर) तलाशी...
[सब एक दूसरे को देखते हैं, फुसफुसाते हैं]
पटेश्वरी— यह सब कमाने के ढंग हैं !
पटेश्वरी— और आया क्यों है। जब आया है तो बिना कुछ लिये-दिये थोड़े ही जायेगा !
झिंगुरीसिंह— (होरी से) निकालो जो कुछ देना है। यों गला न छूटेगा।
(होरी पागल-सा देखता है। दारोगा चीखते हैं)
दारोगा— कहाँ है हीरा का घर? मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।
[होरी घबराता है। दातादीन झिंगुरीसिंह आदि उसे बाहर ले जाते हैं। पटेश्वरी दारोगा के पास जाता है।]
पटेश्वरी— तलाशी लेकर क्या करेंगे हुजूर, उसका भाई ताबेदारी के लिये हाजिर है।
दारोगा— (इधर-उधर देखकर अलग) कैसा आदमी है?
पटेश्वरी— बहुत ही गरीब हुजूर। भोजन का भी ठिकाना नहीं।
दारोगा— सच !
पटेश्वरी— हाँ हुजूर, ईमान से कहता हूँ।
दारोगा— अरे तो क्या एक पचासे का भी डौल नहीं?
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