नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
दारोगा— मेरे कहाँ जा सकते हैं। वह न देगा गाँव के मुखिया देंगे और पन्द्रह रुपये की जगह पूरे पचास देंगे। आप चटपट इन्तजाम कीजिये।
पटेश्वरी— (हँस कर) हुजूर बड़े दिल्लगीबाज हैं।
दारोगा— (कड़क कर) यह खुशामद फिर करना। इस वक्त तो मुझे पचास रुपये दिलवाइये नकद। मैं पन्द्रह मिनट का समय देता हूँ। अगर इतनी देर में पूरे पचास न आये तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गण्डा सिंह को जानते हो? उसका मारा पानी भी नहीं माँगता। डाके में सारे गाँव को कालेपानी भेजवा सकता हूँ।
[वह बाहर जाता है। नेता लोगों के मुँह पर हवाइयाँ उड़ती हैं और परदा गिरने लगता है। उठता है तो चारों बोलते हैं]
दातादीन— मेरा सराप न पड़े तो मुँह न दिखाऊँ।
पटेश्वरी— ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा।
झिंगुरीसिंह— भगवान न जाने कहाँ है कि अन्धेर देख कर भी पापियों को दण्ड नहीं देते।
[परदा पूरा गिर जाता है]
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