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नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक)

होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476
आईएसबीएन :978-1-61301-161

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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है

अंक दो

पहला दृश्य

[मंच पर रात का अँधेरा है। पृष्ठभूमि में जुगनू से चमकते हैं। शीत है, होरी के घर का द्वार नहीं दिखायी देता है। दूसरी ओर मंच पर होरी फटा कम्बल लपेटे धनिया के साथ प्रवेश करता है। मिट्टी के तेल की ढिबरी जल रही है। दोनों बातें कर रहे हैं]

होरी— बात क्या है? बोलती क्यों नहीं। गोबर को भेज कर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया?

धनिया— (पास बैठ कर) गोबर ने मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो?

होरी— क्या हुआ? क्या किसी से मारपीट कर बैठा?

धनिया— अब मैं क्या जानूँ, क्या कर बैठा, चल कर पूछो उसी राँड़ से।

होरी— किस राँड़ से? क्या कहती है तू, बौरा तो नहीं गयी?]

धनिया— हाँ, बौरा क्यों न जाऊँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगुनी हो जाय !

होरी— साफ-साफ क्यों नहीं कहती? किस राँड़ को कह रही है?

धनिया— उस झुनिया को, और किसको?

होरी— तो झुनिया क्या यहाँ आयी है?

धनिया— और कहाँ जाती, पूछता कौन?

होरी— गोबर क्या घर में नहीं है?

धनिया— गोबर का कहीं पता नहीं। जाने कहाँ भाग गया। कई महीने का पेट है। न रहता तो अभी बात न खुलती। चुड़ैल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया।

होरी— लाया तो वही होगा?

धनिया— हाँ, कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा फिर न जाने किधर सरक गया। यह पुकारती रही। न लौटा तो मेरे पास आयी। बैठी रो रही है। मैं तुमसे कहे देती हूँ मैं उसे अपने घर में न रक्खूँगी। गोबर को रखना हो अपने सिर पर रखे।

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