लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक)

होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476
आईएसबीएन :978-1-61301-161

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

29 पाठक हैं

‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है

तीसरा दृश्य

[मंच पर होरी के घर का द्वार। मार्ग तथा अन्य घरों के द्वार दिखायी देते हैं। सोना बाहर से आती है, अन्दर जाने को होती है कि ठिठक जाती है। अन्दर से मातादीन आता है। पीछे-पीछे झुनिया है। मातादीन सोना को देखता चला जाता है। सोना के भाव बिगड़ते हैं।]

सोना— जब से भोला हमारे बैल खोल ले गये और दादा ने दातादीन पण्डित के साथ साझे की खेती शुरू की मातादीन भी यहाँ आने लगे। बड़ा खराब आदमी है।

झुनिया— मुझे तो बड़ा भला आदमी लगता है। क्या खराबी है उसमें?

सोना— तुम नहीं जानतीं? सिलिया चमारिन को रखे हुए है।

झुनिया— तो इसी से आदमी खराब हो गया?

सोना— और काहे से आदमी खराब कहा जाता है?

झुनिया— तुम्हारे भैया भी तो मुझे लाये हैं। वह भी खराब आदमी हैं?

सोना—  मेरे घर में फिर कभी आयगा तो दुतकार दूँगी।

झुनिया— और जो उससे तुम्हारा ब्याह हो जाय?

सोना— (लजाकर) तुम तो भाभी गाली देती हो !

झुनिया— क्यों, इसमें गाली की क्या बात है?

सोना— मुझसे बोले तो मुँह झुलस दूँ।

[धनिया का प्रवेश]

धनिया— तुम यहाँ खड़े क्या कर रही हो? तुम्हारे दादा आते होंगे।

सोना— अरे हाँ अम्माँ। आज तो दादा बहुत से रुपये लायेंगे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book