नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
झुनिया— मिल खुल जाने का यही फायदा है। अच्छा किया जो दादा ने ऊख बेंच दी। गुड़ के भाव चीनी मिलेगी तो गुड़ लेगा ही कौन? अब कम-से-कम सौ रुपये की आशा है।
सोना— इतने में एक मामूली गोई आ जायगी।
धनिया— आ तो जायगी पर महाजनों से बचे तब न। इस झिंगुरी के सभी रिनियाँ हैं। देखा नहीं, दुलारी सहुआइन, मंगरू साह सब ऊख काटते वक्त कैसे भागे आये थे। अच्छा आओ, अन्दर आओ, कुछ चना-चबेना तो चाहिए ही। कुछ तो जायँगे ही।
[सब अन्दर जाती हैं। एक क्षण बाद होरी मुँह लटकाये आता है। सामने से एक किसान ताड़ी पिये झूमता आता है]
किसान— झिंगुरिया ने सारे का सारा ले लिया, होरी काका। चबेना को भी एक पैसा न छोड़ा। हत्यारा कहीं का। रोया, गिड़गिड़ाया पर उस पापी को दया नहीं आयी।
होरी— ताड़ी पिये हो, उस पर कहते हो एक पैसा भी न छोड़ा।
किसान— साँझ हो गयी; जो पानी की बूँद भी कँठ तले गई हो, तो गौ मांस बराबर। एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा साल भर पसीना गारा है तो एक दिन ताड़ी पी लूँ, मगर सच कहता हूँ नसा नहीं है। एक आने का क्या नसा होगा। हाँ, झूम रहा हूँ जिसमें लोग समझें खूब पिये हैं। बड़ा अच्छा हुआ काका, बेबाकी हो गयी। बीस लिये थे उसके एक सौ साठ भरे, कुछ हद है।
[बोलता हुआ आता है। होरी एक क्षण उसे देखता है तभी रूपा आती है। चिल्लाती है]
रूपा— दादा आ गये, दादा आ गये। (अन्दर जाती है और दूसरे ही क्षण सब आतीं है। रूपा पानी लिये है। सोना चिलम लिये है। धनिया चबेना और नमक लायी है। झुनिया भी चौखट पर खड़ी है। सब मुस्कराकर उत्सुकता से देखते हैं पर होरी बैठा है, उदास, ग्लानिग्रस्त गुमसुम)
धनिया— कितने की तौल हुई।
होरी— एक सौ बीस मिले, पर सब वहीं लुट गये। धेला भी न बचा।
[सब सन्न रह जाते हैं]
धनिया— क्या? एक धेला भी न बचा?
होरी— नहीं।
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