नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
दुलारी— हाँ, हाँ, जितना चाहे लो। चावल लो, घी लो। गोबर तो खूब कमा के आया है न?
धनिया— अभी तो कुछ नहीं खुला, दीदी, हाँ सबके लिए किनारदार साड़ियाँ लाया है। तुम्हारे आसिरबाद से कुशल से लौट आया, मेरे लिये तो यही बहुत है।
दुलारी— भगवान करे कुशल से रहे। माँ-बाप को क्या चाहिए। लड़का समझदार है। दूसरे छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं है। (जाते-जाते) हमारे रुपये अभी न देती हो तो ब्याज तो दे दो। दिन-दिन बोझ बढ़ ही तो रहा है।
धनिया— सब देंगे दीदी। रुपये भी देंगे। ब्याज भी।
[दोनों बाहर हो जाते हैं। घर के अन्दर से झुनिया और गोबर आते हैं।]
गोबर— क्या कहा दोनों बैल खोलकर ले गये? इतनी बड़ी जबरदस्ती। और दादा कुछ बोले नहीं?
झुनिया— दादा अकेले किस-किस से लड़ते। फिर वे भलमनसी में आ गये। गाँव वाले तो नहीं ले जाने देते थे।
गोबर— तो आजकल खेतीबारी कैसे हो रही है !
झुनिया— खेतीबारी सब टूट गई। थोड़ी-सी पण्डित महाराज के साझे में है। ऊख बोई ही नहीं गयी।
गोबर— (तेजी से बढ़ता हुआ) तो फिर पहले मैं उन्हीं से जाकर समझता हूँ। उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जाँय। यह डाका है, खुला हुआ डाका।
झुनिया— (उसे खींचती है) तो चले जाना, अभी ऐसी क्या जल्दी है। कुछ आराम कर लो, कुछ खा पी लो। सारा दिन तो पड़ा है। यहाँ बड़ी-बड़ी पंचायत हुई। पंचायत ने अस्सी रुपये डाँड़ लगाये।
गोबर— (चकित) अस्सी रुपये डाँड़ !
झुनिया— और तीन मन अनाज ऊपर से। उसी से तो तबाही आ गयी।
गोबर— मेरा गधापन था कि घर से भागा, नहीं देखता कैसे कोई एक धेला डाँड़ लेता है। यही जी चाहता है कि लाठी उठाऊँ और पटेसरी, दातादीन, झिंगुरी सब सालों को पीट कर गिरा दूँ और उनके पेंट से रुपये निकाल दूँ।
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