नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
झुनिया— (उपेक्षा से) मुझे ऐना-कंघी न चाहिए। अपने पास रखे रहें।
रूपा— (टोपी निकालकर) ओहो ! यह तो चुन्नू की टोपी है।
(बच्चे को पहनाती है, झुनिया उतार फेंकती है और अन्दर जाती है। गोबर मुस्करा कर वहीं बैठ कर बक्स खोलता है।)
गोबर— ले सोना तेरी चप्पल। रूपा तू गुड़िया ले।
सोना— अहा-हा मेरी चप्पल।
रूपा— ऊँ-ऊँ मैं भी चप्पल लूँगी। मेरे लिए चप्पल क्यों नहीं लाये?
सोना— तू क्या करेगी चप्पल लेकर, अपनी गुड़िया से खेल। हम तो तेरी गुड़िया देखकर नहीं रोते। तू मेरा चप्पल देखकर क्यों रोती है?
धनिया— अच्छा-अच्छा, लड़ो मत। सब उठा कर अन्दर ले चलो।
[गोबर साड़ियाँ निकालता है]
सोना— किनारदार साड़ी।
रूपा— जैसे पटेश्वरी लाला के घर पहनते हैं।
सोना— मगर है बड़ी हल्की। कै दिन चलेगी !
गोबर— यह रही दादा की धोती और यह रहा दुपट्टा।
धनिया— (प्रसन्न होकर) यह तुमने अच्छा किया बेटा। इनका दुपट्टा बिल्कुल तार-तार हो गया था। अच्छा-अच्छा मुँह-हाथ धो। फिर बाँट लेना। चल सोना, रूपा। उठाओ सब कुछ। मैं दुलारी की दुकान तक चली जाती हूँ।
[सब अन्दर जाते हैं। होरी भी गोबर का सहारा लेकर उठता है। धनिया बाहर जाने को मुड़ती है कि दुलारी उधर ही आती है।]
धनिया— अरे लो दीदी, मैं तुम्हारी दूकान पर जा रही थी। गेहूँ का आटा चाहिये। गोबर आया है।
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