नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
दूसरा दृश्य
[होरी के घर का द्वार ! खाना-पीना करके होरी बैठा हुक्का पी रहा है। मंच पर पहले दृश्य जैसी हालत है। दो क्षण बाद गोबर अन्दर से कुदाल लिए आता है। पीछे-पीछे धनिया भी है। उसे देखकर होरी बोल उठता है।]
होरी— अभी से चल दिये। जरा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकाल कर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।
गोबर— (अवज्ञा से) हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।
होरी— बेचता नहीं हूँ भाई यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।
गोबर— हमें तो उन्होंने कभी एक गाय भी नहीं दी।
होरी— दे तो रहा था, हमीं ने नहीं ली।
धनिया— (मटक कर) गाय नहीं वह दे रहा था ! आँख में अंजन लगाने को कभी चुल्लू भर दूध तो भेजा ही नहीं, गाय दे देगा !
होरी— नहीं, जवानी कसम, अपनी पछाईं गाय दे रहे थे। हाथ तंग है, भूसा चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेच कर भूसा लेना चाहते हैं।
गोबर— तो ले लें, कौन रोकता है।
होरी— रोकता कौन? मैंने ही सोचा कि संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँ। थोड़ा-सा भूसा देता हूँ, कुछ रुपये हाथ आ जायँगे तो गाय ले लूँगा...
गोबर— (एकदम) तुम्हारा यही धर्मात्मापन तो तुम्हारी दुर्गत करा रहा है। साफ बात है। अस्सी रुपये की गाय है, हमसे बीस रुपये का भूसा ले ले और गाय हमें दे दे। साठ रुपये रह जायँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।
होरी— (मुस्कराकर) मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेत में हाथ आ जाय। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है बस।
गोबर— (तिरस्कार से) तो तुम अब सबकी सगाई ठीक करते फिरोगे !
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