नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
भोला— सो तो ठीक है लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नहीं?
होरी— भगवान कोई-न-कोई सबील निकालेंगे ही। असाढ़ सिर पर है। कड़वी बो लूँगा।
भोला— मगर यह गाय तुम्हारी हो गई। जिस दिन इच्छा हो आकर ले जाना।
होरी— किसी भाई का लिलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है वही इस समय तुम्हारी गाय में है।
भोला— (गद्गद) तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिए?
होरी— अभी मैं रायसाहब की ड्योढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी भर में लौटूँगा, तभी किसी को भेजना।
भोला— तुमने मुझे आज उबार लिया होरी भाई। मुझे अब मालूम हुआ कि मेरा भी कोई हितू है। (जाता है और ठिठकता है। जोर से) उस बात को भूल न जाना।
[होरी जाते-जाते उसे देखता है। हाथ से आश्वासन देता है। भोला जाता है। होरी ठिठक कर उसे देखता है। फिर मंच के बीच में आकर ललचाई निगाहों से उसके जाने की दिशा में देखता है। फिर बोल उठता है।]
होरी— कैसे सिर हिलाती, मस्तानी, मंद गति से झूमती चली जाती है। जैसे बाँदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ होगा वह दिन जब यह कामधेनु मेरे द्वारा पर बँधेगी।
[पर्दा]
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