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होरी (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8476
आईएसबीएन :978-1-61301-161

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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है


गोबर— (उत्तेजित स्वर) दादा, तुम बीच में न बोलो। उनकी गाय पचास की थी। हमारी गोई डेढ़ सौ में आयी थी। तीन साल हमने जोती फिर भी सौ की थी ही। वह अपने रुपये के लिये दावा करते, डिग्री कराते, या जो चाहते करते। हमारे द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले गये। मेरे सामने खोल ले जाते तो देखता। तीनों को यहीं ज़मीन पर सुला देता। और पंचों से तो बात तक न करता। देखता, कौन मुझे बिरादरी से अलग करता है लेकिन तुम बैठे ताकते रहे।

धनिया— बेटा, तुम भी तो अँधेर करते हो, हुक्का-पानी बन्द हो जाता तो गाँव में निर्वाह होता? जवान लड़की बैठी, उसका भी कहीं ठिकाना लगाना है कि नहीं। मरने जीने में आदमी बिरादरी...

गोबर— (बात काट कर) हुक्का-पानी सब तो था, बिरादरी में आदर भी था, फिर मेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ? बोलो। इसलिये कि घर में रोटी न थी। रुपये हों तो हुक्का-पानी का काम है, न जात बिरादरी का। दुनिया पैसे की है, हुक्का-पानी कोई नहीं पूछता।

[सहसा बच्चा रोता है, धनिया अन्दर जाती है। गोबर आगे बढ़ता है। होरी शून्य में ताकता सहसा जागता है। दो कदम बढ़ता है]

होरी— मैं भी चला चलूँ?

गोबर— मैं लड़ाई करने नहीं जा रहा हूँ, दादा, डरो मत। मेरी ओर तो कानून है। मैं क्यों लड़ाई करने लगा।

होरी— मैं भी चलूँ तो कोई हरज है?

गोबर— हाँ, बड़ा हरज है। तुम बनी बात बिगाड़ दोगे।

[कह कर वह तेजी से जाता है। धनिया तेजी से आती है]

धनिया— क्या गोबर चला गया? अकेले ! भोला क्या सहज में गोईं देगा। तीनों उस पर टूट पड़ेंगे। भगवान ही कुशल करें। अब किससे कहूँ दौड़कर गोबर को पकड़ लो। तुम से तो मैं हार गई !

[होरी उसे देखता है। फिर एकाएक डंडा उठाकर भागता है। मंच पर सहसा अन्धकार होने लगता है। धनिया अन्दर जाती है। कुछ क्षण बाद होरी निराश लौटता है। अन्धकार और गहरा होता है। बैलों की घंटियाँ बजती हैं। गोबर अकड़ता हुआ मंच पर आता है। पीछे-पीछे एक व्यक्ति सिर पर हाँडी रखे हैं। गाँव के युवक भी हैं]

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