| नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
गोबर— (गर्व से) हाँडी अन्दर रख दो और गोईं उधर बाँध दो। (युवक से) हाँ, होली आ रही है। मेरे द्वार पर भंग घुटेगी। 
युवक— सच !
गोबर— सेर भर बादाम लाया हूँ। केसर अलग पीते ही चोला तर हो जायगा। आँखें खुल जायेंगी और खमीरा तमाकू भी है। (चुपके से) पर इस बार नकल करनी है। 
युवक— तो शोभा है, गिरधारी है। वकील की नकल वह करे, पटवारी की नकल वह करे, थानेदार की, चपरासी की, सभी की नकल कर सकता है। 
दूसरा युवक— पर बेचारे के पास वैसा सामान नहीं है। 
गोबर— सामान का जिम्मा मेरा। 
युवक— तब उसकी नकल देखने जोग होगी।
गोबर— तो फिर आओ परोगराम बना लें।
[अन्दर जाते हैं। परदा गिरता है।]
			
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