नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
दातादीन— तो हमारे रुपये सूद समेत दे दो। तीन साल का सूद होता है सौ रुपया। असल मिला कर दो सौ होते हैं। हमने समझा था तीन रुपये महीना सूद में कटते जायेंगे; लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है तो मत करो।
होरी— (एकदम) क्यों न करें। महाराज, तुम्हारी चाकरी से मैं कब इनकार करता हूँ। लेकिन हमारी ऊख...
गोबर— (एकदम) कैसी चाकरी और किसकी चाकरी। यहाँ कोई किसी का चाकर नहीं। सभी बराबर हैं। अच्छी दिल्लगी है। किसी को सौ रुपये उधार दे दिये और सूद में उससे जिन्दगी भर काम लेते रहे। मूल ज्यों का त्यों। यह महाजनी नहीं खून चूसना है।
दातादीन— तो रुपये दे दो भैया। लड़ाई काहे की। मैं आने रुपये ब्याज लेता हूँ। तुम्हें गाँव-घर का समझ कर रुपये आने पर दिया था।
गोबर— हम तो एक रुपया सैकड़ा देंगे। एक कौड़ी बैसी नहीं। तुम्हें लेना हो तो लो, नहीं अदालत से लेना।
दातादीन— मालूम होता है रुपये की गर्मी हो गयी है !
गोबर— गर्मी उन्हें होती है जो एक के दस लेते हैं, हम तो मजूर हैं। हमारी गर्मी पसीने के रास्ते बह जाती है। मुझे खूब याद है तुमने बैल के तीस रुपये दिये थे। उसके सौ हुए और अब सौ के दो सौ हो गये।
दातादीन— हो गये क्या वैसे ही। हिसाब कर लो।
गोबर— क्या हिसाब कर लूँ। तुम लोगों ने किसानों को लूट-लूट कर मजूर बना डाला। और उनकी जमीन के मालिक बन बैठे। तीस के दो सौ। कुछ हद है। कितने दिन हुए होंगे दादा?
होरी— (कातर कंठ) यही आठ-नौ साल हुए होंगे।
गोबर— (छाती पर हाथ रख कर) नौ साल में तीस रुपये के दो सौ। एक रुपये के हिसाब से कितना होता है। (जमीन पर ठीकरे से हिसाब लगाता है) दस साल में छत्तीस रुपये होते हैं। असल मिला कर छाछठ। उसके सत्तर रुपये ले लो। इससे बेसी मैं एक कौड़ी न दूँगा।
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