नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 29 पाठक हैं |
‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
दातादीन— (होरी से) सुनते हो होरी, गोबर का फैसला। इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगा ! और तुम बैठे सुन रहे हो ! मगर यह समझ लो, मैं ब्राह्मण हूँ, मेरे रुपये हजम करके तुम चैन न पाओगे। मैंने ये सत्तर रुपये भी छोड़े, अदालत भी न जाऊँगा, जाओ। (जाता है, लौटता है) अगर मैं ब्राह्मण हूँ तो पूरे दो सौ रुपये लेकर दिखा दूँगा और तुम द्वार पर आओगे और हाथ बाँध कर दोगे।
[झल्लाये हुए हैं। तभी होरी दौड़कर चरण पकड़ लेता है। आर्त्त स्वर में कहता है]
होरी— महाराज, जब तक जीता हूँ, तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा। लड़के की बातों पर मत जाओ। वह कौन होता है...
दातादीन— जरा इसकी जबरदस्ती तो देखो, कहता है दो सौ रुपये के सत्तर लो या अदालत जाओ ! अभी अदालत की हवा नहीं खायी है ! जभी। चार दिन शहर में क्या रहे तानाशाह हो गये !
होरी— मैं तो कहता हूँ महाराज, मैं तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा।
दातादीन— तो कल से हमारे यहाँ काम करने आना पड़ेगा।
होरी— अपनी ऊँख बोना है महाराज, नहीं तुम्हारा काम करता।
दातादीन— अच्छा-अच्छा, देखूँगा (तेजी से जाता है)
गोबर— गये थे देवता को मनाने। तुम्हीं लोगों ने इन सब का मिजाज बिगाड़ दिया है। तीस रुपये दिये, अब दो सौ रुपये लेगा और डाँट ऊपर से बताएगा और मजूरी कराते-कराते मार डालेगा।
होरी— मार डाले पर नीति हाथ से न छोड़ना चाहिए बेटा, अपनी करनी अपने साथ है। हमने जिस ब्याज पर रुपये लिये वह तो देने ही पड़ेंगे। फिर ब्राह्मण ठहरे। इनका पैसा हमें पचेगा?
गोबर— कौन कह रहा है कि ब्राह्मन का पैसा पचा लो। मैं तो यही कहता हूँ कि इतना सूद हम नहीं देंगे। बंक वाले बारह आने सूद लेते हैं। तुम एक रुपया ले लो। और क्या किसी को लूट लोगे।
होरी— उनका रोआँ जो दुखी होगा।
गोबर— हुआ करे।
होरी— बेटा, जब तक मैं जीता हूँ मुझे अपने रास्ते चलने दो। जब मर जाऊँगा तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह करना।
|