नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
होरी— माँ-बाप का धरम सोलहों आना लड़कों के साथ है। लड़कों का माँ-बाप के साथ एक आना भी धरम नहीं है। अब जो जाता है उसे असीम देकर बिदाकर। हमारा भगवान मालिक है। जो कुछ भोगना बदा है, भोगेंगे। चालीस साल, सैंतालीस साल इसी तरह रोते-धोते कट गये। दस-पाँच साल हैं वह भी यों ही कट जायँगे।
[गोबर बिस्तर लिये आता है, झुनिया चुंदरी पहने है। चुन्नू ने टाँप और फ्राक पहना है, सोना, रूपा पागल-सी पीछे-पीछे हैं। होरी गोबर के पास आकर करुण कंठ से कहता है।]
होरी— बेटा ! तुमसे कुछ कहने को मुँह तो नहीं है लेकिन कलेजा नहीं मानता। क्या जरा जाकर अपनी अभागिनी माता के पाँव छू लोगे तो कुछ बुरा होगा ! जिस माता की कोख से जनम लिया और जिसका रक्त पीकर पले हो उसके साथ इतना भी नहीं कर सकते !
गोबर— (मुँह फेर कर) मैं उसे अपनी माता नहीं समझता।
होरी— (रुँधा स्वर) जैसी तुम्हारी इच्छा। जहाँ रहो सुखी रहो।
[झुनिया सास के पास आती है, अंचल से चरण छूती है पर धनिया नहीं बोलती। आगे-आगे बालक को लिये गोबर, पीछे-पीछे बिस्तर लिये झुनिया। एक लड़का सन्दूक उठाये है। गाँव के स्त्री-पुरुष साथ-साथ जाते हैं। मंच पर रूपा, सोना हैं जो पीछे-पीछे जाती हैं। रोती हैं। ठिठकती हैं। होरी है जो रोता हुआ एकटक देखता है। धनिया है जो कहीं न देख कर रोये जाती है। यहीं परदा गिरता है।]
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