नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
अंक तीन
पहला दृश्य
[मंच पर दातादीन के पौरा का दृश्य। बैलों की घंटी सुनाई देती है। एक ओर मातादीन बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा है। दूसरी और सिलिया पौरे से अनाज निकाल-निकाल कर ओसा रही है। सिलिया साँवली, सलोनी, छरहरी युवती है। आकर्षक है। उसका अंग-अंग हर्षोन्माद से नाचता है। पसीने से तर वह सिर से पाँव तक भूसे से सनी है। सिर के बाल आधे खुले हैं ! वह दौड़-दौड़कर अनाज ओसा रही है। सहसा मातादीन उठता है।]
मातादीन— आज साँझ तक अनाज बाकी न रहे सिलिया। तू थक गयी हो तो मैं आऊँ।
सिलिया— तुम काहे को आओगे, पण्डित। मैं संझा तक सब ओसा दूँगी।
मातादीन— अच्छा तो अनाज ढो-ढोकर रख आऊँ। तू अकेली क्या-क्या कर लेगी।
सिलिया— तुम घबड़ाते क्यों हो, मैं ओसा दूँगी, ढोकर रख भी आऊँगी। पहर रात यहाँ एक दाना भी न रहेगा।
[दुलारी का प्रवेश। मातादीन चुपके से सरक जाता है]
दुलारी— सिलिया, क्यों री महीना भर रंग लाये हो गया, अभी तक पैसे नहीं दिये? माँगती हूँ, तो मटक कर चली आती है। आज मैं बिन पैसे लिये न जाऊँगी।
सिलिया— (इधर-उधर देखकर) चिल्लाओ मत सहुआइन, यह ले लो, दो की जगह चार पैसे का अनाज। अब क्या किसी की जान लोगी। मैं मरी थोड़े ही जाती थी।
[पल्ले में अनाज डालती है, तभी झल्लाया हुआ मातादीन आता है। पल्ला पकड़ लेता है।]
मातादीन— अनाज सीधे से रख दो सहुआइन; लूट नहीं है। (सिलिया से लाल आँखें करके) तूने अनाज क्यों दे दिया? किससे पूछ कर दिया? तू कौन होती है मेरा अनाज देनेवाली?
[सहुआइन अनाज डाल देती है। सिलिया हक्का-बक्का होकर मातादीन का मुँह देखने लगती है, फिर आँखों में आँसू भर कर सहुआइन से कहती है।]
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