नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
हरखू— तू बड़ी हत्यारिन है, सिलिया। क्या उसे मार डालेगी?
सिलिया— (बाप के पैरों से लिपट जाती है।) मार डालो दादा, सब जनें मिल कर मार डालो। हाय अम्माँ, तुम इतनी निर्दयी हो। हाय मेरे पीछे पण्डित को भी तुमने भिरस्ट कर दिया। मैं मर जाऊँगी पर हरजाई न बनूँगी। एक बार जिसने बाँह पकड़ ली उसी की रहूँगी !
माँ— जाने दो राँड़ को। समझती है वह इसका निबाह करेगा।
मगर आज ही मार कर भगा न दे तो मुँह न दिखाऊँ। चलो...
[सब जाते हैं। सिलिया कराहती है आँचल से मुँह ढाँप कर रोती है।]
दातादीन— उनके साथ चली क्यों नहीं गयी री सिलिया। अब क्या करवाने पर लगी हुई है। मेरा सत्यानाश करके भी पेट नहीं भरा।
सिलिया— उनके साथ क्यों जाऊँ? जिसने बाँह पकड़ी उसके साथ रहूँगी।
दातादीन— (धमकाकर) मेरे घर में पाँव रखा तो लातों से बात करूँगा।
सिलिया— (उद्दंडता) मुझे जहाँ वह रखेंगे वहीं रहूँगी। पेड़ तले रखें चाहे महल में रखें।
दातादीन— (मातादीन से) मातादीन। अगर तुम परासचित करना चाहते हो तो सिलिया को त्यागना पड़ेगा।
मातादीन— मैं अब इसका मुँह न देखूँगा। लेकिन पण्डितों ने कहा कि परासचित नहीं हो सका तो तुम मुझे घर से निकाल दोगे?
दातादीन— ऐसा कहीं हो सकता है, बेटा ! धन जाय, धरम जाय, लोक-मरजाद जाय तुम्हें नहीं छोड़ सकता। चलो उठो। चलकर नहाओ खाओ।
[मातादीन लकड़ी उठा कर दातादीन के पीछे-पीछे चलता है। सिलिया भी लँगड़ाती हुई पीछे हो लेती है।]
मातादीन— (कठोर स्वर) मेरे साथ मत आ, मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं।
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