नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
सिलिया— वास्ता कैसे नहीं। इसी गाँव में तुमसे धनी, तुमसे सुन्दर, तुमसे इज्जतदार लोग हैं। मैं उनका हाथ क्यों नहीं पकड़ती। जो रस्सी तुम्हारे गले में पड़ गयी है, उसे तुम लाख चाहो तोड़ नहीं सकते। और न मैं छोड़कर कहीं जाऊँगी। मजूरी करूँगी, भीख माँगूगी लेकिन तुम्हें न छोड़ूँगी।
[इतना कह कर वह पहले की तरह अनाज ओसाने लगती है। होरी अनाज माँड़ने में लगा है। वह मंच पर आता है। तभी धनिया आती है।]
होरी— आ गयी? देख तो इस सिलिया को घर वालों ने कैसा पीटा है। पीठ पर की साड़ी लहू से रंग गयी है। कहीं घाव पक न जाय, बड़े निर्दयी हैं।
सिलिया— यहाँ निर्दयी कौन नहीं है, दादा। मैंने तो किसी को दयावान नहीं पाया। पंडित कहते हैं मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं।
होरी— अच्छा, ऐसा कहते हैं।
सिलिया— समझते होंगे, इस तरह अपने मुँह की लाली रख लेंगे लेकिन जिस बात को दुनिया जानती है उसे कैसे छिपा लेंगे। मेरी रोटियां भारी हैं न दें। मजूरी अब भी करती हूँ, तब भी करूँगी। सोने को हाथ भर जगह तुम्हीं से मागूंगी तो क्या तुम न दोगे?
धनिया— (करुण स्वर) जगह की कौन कमी है बेटी। तू चल मेरे घर रह।
होरी— (कातर स्वर) बुलाती तो हैं लेकिन पण्डित को जानती नहीं।
धनिया— (निर्भीक स्वर) बिगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लेंगे। कोई उनकी दबैल हूँ। इसकी इज्जत ली, बिरादरी से निकलवाया, अब कहते हैं मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। आदमी है कि कसाई !
होरी— लेकिन धनिया, सिलिया के घर वालों ने मतई को बेधरम कर दिया यह भी कोई अच्छा काम नहीं किया। सिलिया को चाहे मार कर ले जाते, चाहे दुलार कर ले जाते। वह उनकी लड़की है। मतई को क्यों बेधरम किया?
धनिया— अच्छा रहने दो बड़े न्यायी बने हो। मरद-मरद सब एक होते हैं? इसको मतई ने बेधरम किया तब तो किसी को बुरा न लगा। क्या इसका धरम धरम नहीं है। रखा तो चमारिन को, उस पर नेमी-धरमी बनते हैं !...सिलिया, तू चल मेरे घर। (सिलिया धनिया के पैरों पर गिर कर फूट पड़ती है) अरे-अरे रोती क्यों है।...बेचारी की सारी पीठ लहूलुहान करदी...जाओ जी तुम जाके सोना को भेज दो। मैं इसे लेकर जा रही हूँ। इसे तो पेट है। (होरी चुपचाप जाता है। धनिया उसे उठाती है।) उठ चल, न जाने कैसे बेदरद माँ बाप हैं तेरे...ऐसी हालत में इतना मारा।
[दोनों जाने को मुड़ती हैं परदा गिरता है।]
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