नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
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‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
सिलिया— (काँपकर) क्या कहती है री !
सोना— ठीक तो कहती हूँ। माँ-बाप ने मर-मर के पाला पोसा, उसका बदला क्या यही है कि उसके घर से जाने लगूँ तो उन्हें कर्ज़ से और लादती जाऊँ? भगवान ने दिया हो तो खुशी से जितना चाहे लड़की को दे मैं मना नहीं करती लेकिन जब पैसे-पैसे को तंग रहे हों तो कन्या का धरम यही है कि वह डूब मरे।
सिलिया— (काँपकर) डूब मरे?
सोना— हाँ, डूब मरे। इससे घर की जमीन-जैजात तो बच जायगी, रोटी का सहारा तो रह जायगा। चार दिन मेरे नाम को रोकर सन्तोष कर लेंगे। ब्याह करके तो जन्म भर रोना पड़ेगा। तीन-चार साल में दो सौ के दूने हो जायँगे। दादा कहाँ से लाकर देंगे?
[सोना का हताश स्वर धीरे-धीरे आवेश में पलट जाता है। सिलिया अचरज से उसे देखती है फिर एकाएक छाती में भर लेती है।]
सिलिया— तूने इतनी अक्कल कहाँ से सीख ली, सोना। देखने में तो तू बड़ी भोली-भाली है।
सोना— इसमें अक्कल की कौन बात है चुड़ैल। क्या मेरे आँखें नहीं है कि मैं पागल हूँ। मुँह अँधेरे सोनारी चली जाना और उसे बुला लाना, मगर नहीं, बुलाने का काम नहीं। मुझे उससे बोलते लाज आयेगी। तू ही मेरा यह संदेशा कह देना ! देख क्या जवाब देते हैं। कौन दूर है। नदी के उस पार ही तो है।
सिलिया— चली जाऊँगी। मना कहाँ करती हूँ। (साँस लेकर) तेरे माँ-बाप कितने अच्छे हैं। सारे गाँव में बदनाम हो रहे हैं पर मुझे निकालते नहीं।
सोना— क्यों निकालें। गाँव वाले तो अन्धे हैं। हाँ, यह तो बता इधर मतई से तेरी भेंट नहीं हुई। सुना, ब्राह्मन उन्हें बिरादरी में ले रहे हैं।
सिलिया— (हिकारत से) बिरादरी में क्यों न लेंगे। हाँ, बूढ़ा रुपये नहीं खर्च करना चाहता। उनको पैसा मिल जाय तो झूठी गंगा उठा ले। लड़का आजकल बाहर ओसारे में टिक्कड़ लगाता है।
सोना— तू उसे छोड़ क्यों नहीं देती? अपनी बिरादरी में किसी के साथ बैठ जा और आराम से रह। वह तेरा अपमान तो न करेगा।
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