नाटक-एकाँकी >> होरी (नाटक) होरी (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 29 पाठक हैं |
‘होरी’ नाटक नहीं है प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास गोदान का नाट्यरूपान्तर है
धनिया— (साँस लेकर) यही तो कहती हूँ।
होरी— (उठता है अच्छा भगवान, जाता हूँ, औरतों में दया होती है। शायद दुलारी, सहुआइन का दिल पसीज जाय और कम सूद पर दो सौ रुपये दे दे।
धनिया— (व्यंग) जरूर दे देगी ! उससे रुपये लेकर आज तक कोई उरिन हुआ है। चुड़ैल कितना कस कर सूद लेती है।
होरी— लेकिन करूँ क्या? दूसरा देता कौन है?
[धनिया कुछ नहीं कह पाती। होरी चला जाता है। धनिया एक क्षण उसे देखती है फिर अन्दर जाती है। उसके जाते ही सोना और सिलिया अन्दर से आती हैं। सोना इधर-उधर देखती है और चौकन्नी होकर कहती है।]
सोना— तूने कुछ सुना? दादा सहुआइन से मेरी सगाई के लिये दो सौ रुपये उधार ले रहे हैं।
सिलिया— घर में पैसा नहीं है तो क्या करें।
सोना— (गम्भीर) मैं ऐसा नहीं करना चाहती जिसमें माँ-बाप को कर्ज लेना पड़े। कहाँ से देंगे बेचारे कर्जा। पहले ही कर्ज के बोझ में दबे हुए हैं। दो सौ ले लेंगे तो बोझा और भारी होगी कि नहीं।
सिलिया— बिना दान-दहेज के बड़े आदमियों का कहीं ब्याह होता है पगली। बिना दहेज के तो कोई बूढ़ा ही मिलेगा। जायगी बूढ़े के साथ?
सोना— बूढ़े के साथ क्यों जाऊँ? भैया बूढ़े थे जो झुनिया को ले आये? उन्हें किसने पैसे दहेज में दिये थे।
सिलिया— उसमें बाप-दादा का नाम डूबता है।
सोना— मैं तो सोनारी वालों से कह दूँगी, अगर तुमने एक पैसा भी दहेज लिया तो मैं ब्याह न करूँगी।
सिलिया— और जो वह कह दे कि मैं क्या करूँ तुम्हारे बाप देते हैं, मेरे बाप लेते हैं, इसमें मेरा क्या अख्तियार है।
सोना— (हताश स्वर में) मैं एकबार उससे कहके देख लेना चाहती हूँ। अगर उसने कह दिया मेरा अख्तियार नहीं है तो क्या गोमती यहाँ से बहुत दूर है। डूब मरूँगी।
|